मंडी, 04 मार्च : हिमाचल प्रदेश के जंगलों में प्राकृतिक खाद्य वस्तुएं (Natural food items) मौजूद हैं, जिनकी समय और ऋतु के हिसाब से स्वतः ही पैदावार होती रहती है। इन्हीं में से एक है तरड़ी। हालांकि तरड़ी स्थानीय बोली में कहा जाता है, जबकि आयुर्वेद में इसे तरूणकंद (Tarunkand) कहा गया है। जनवरी महीने की शुरुआत से लेकर शिवरात्रि के कुछ समय बाद तक यह कंद प्राकृतिक रूप से जंगलों में मिलता है। लोग खुदाई करके इसे जमीन से निकालकर खुद भी खाते हैं और बाजारों में बेचने के लिए भी लाते हैं। इसकी सब्जी बनती है और अचार में भी इस्तेमाल किया जाता है।
प्लांट ब्रिडिंग एंड जेनिटिक्स (Plant Breeding and Genetics) में पीएचडी कर चुके सुंदरनगर निवासी सेवानिवृत प्रोफेसर डॉ संत राम पथिक तरड़ी (तरूणकंद) पर काफी रिसर्च कर चुके हैं। डॉ. पथिक बताते हैं कि इस कंद का नियमित सेवन से इंसान बीमारियों से दूर और हमेशा जवान रहता है। इस बात का प्रमाण इस कंद के नाम से ही मिलता है। तरूण का अर्थ ही ताजा और जवान रहना है।
हालांकि यह कंद प्राकृतिक रूप से जंगलों में ही मिलता है लेकिन डॉ पथिक ने इसे अपने घर के गमलों और टूटे हुए घड़ों में मिट्टी डालकर उगाया था। इनके पास इस कंद को उगाने की तकनीक भी है, लेकिन किन्हीं कारणों से वे इसे प्रचारित नहीं कर पाए। डॉ पथिक के अनुसार घरों में इसे आसानी से उगाकर प्राकृतिक औषधि का सेवन किया जा सकता हैं।
स्वादिष्ट बनती है सब्जी
मंडी जिला के लोग तरड़ी यानी तरूणकंद को सब्जी बनाकर खाते हैं। इसकी सब्जी बहुत ही ज्यादा स्वादिष्ट बनती है। ग्रामीण परिवेश में रहने वाले लोग तरड़ी को निकालने के लिए विशेष रूप से जंगलों में जाते हैं और गहरी-गहरी खुदाई करके इसे निकालकर लाते हैं। बाजारों में भी इसकी बहुत ज्यादा डिमांड रहती है। इस बार यह बाजार में 200 रूपए प्रतिकिलो की दर से बिक रही है। ग्रामीण महिला नेहा कुमारी और सब्जी विक्रेता बेगी देवी ने बताया कि तरड़ी को निकालने में काफी ज्यादा मेहनत लगती है और बाजार में यह काफी महंगी बिकती है।
मंडी जिला की अगर बात करें तो यहां शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने तरड़ी का सेवन न किया हो। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि औषधिक गुणों से भरपूर इस कंद की पैदावार की तरफ भी सोचा जाए और इसे ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दिया जाए, ताकि लोग अपने घरों पर ही इसे उगाकर इसका सेवन भी कर सकें।