राजगढ़ : एक ओर परम्पराएं जन्म लेती हैं तथा दूसरी ओर गुमनामी के अंधेरे में समा जाती हैं। राजगढ़ क्षेत्र में सदियों से चली आ रही ‘‘हुशु’’ की परम्परा ने दम तोड़ दिया है। यह ‘‘रोशनी का खेल’’ पहली दिवाली के रूप में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता था। इस त्योहार को ग्रामीण लोग ‘‘धराड़ी री आठ्यो’’ यानि ‘‘दुर्गाष्टमी’’ के नाम से हर घर में मनाते थे। परन्तु बच्चों के घर में न रहने के कारण यह अब बीते दिनों की बात हो गई है, क्योंकि इस आयोजन को सम्पन्न करने में बच्चों का सबसे अधिक योगदान हुआ करता था।
आज के दिन ग्रामीण चीड़ के पत्तों को लंबी एवं हरी टहनी से बांध कर रख देते थे। सांय के समय पूरे ग्रामीण साथ लगते किसी सामूहिक स्थान पर जाकर उसे जला देते थे। अपने सिर के चारों ओर उस जलती हुई घास को घुमाते थे। इस बारे में बुजुर्गों का कहना है कि ऐसा करने से घर में बसे पिस्सू, खटमल, बिच्छू, सांप इत्यादि भाग जाते हैं। इन हुशुओं को घुमाने से पहले ग्रामीण कुंवारियां, सूप में ‘‘धराड़ी’’ नामक ‘‘मां दुर्गा’’ के प्रतीकों को सजाकर पूजन के बाद पानी में बहा देती हैं।
धराड़ी विसर्जन के बाद, उनके लिए लगाए गए भोग को बच्चों में बांटा जाता था। यह भोग राजमाह की दाल, चावल तथा घी से बना होता था। ये प्रतीकात्मक धराड़ियां जंगली घास ‘‘बूं’’ से बनाई जाती थी। इसे घी के साथ जलाने पर सुगंधित धूप की खुशबु आती है, इसलिए कन्याएं दो धराड़ियां बहा देती हैं। जबकि एक धराड़ी को धूप बनाने के लिए घर ले आती हैं। मगर जब से बच्चे दूर-दूर पढ़ने चले गए हैं तब से इस त्योहार का स्थान दशहरे ने ले लिया है, जबकि पहाड़ी क्षेत्र में दशहरे का नाम मात्र भी नहीं था।