पावंटा साहिब (एमबीएम न्यूज़): अनोखे त्यौहारों एवं परंपराओं के लिए विशेष पहचान रखने वाले हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के ट्रांसगिरी क्षेत्र में आज माघी त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। पवित्र माघ मास से कुछ दिन पहले जिले के ट्रांसगिरी क्षेत्र में लगभग 40,000 बकरों की बलि दी जाएगी। यह अनोखा त्यौहार ट्रांस गिरी क्षेत्र में 10 व 11 जनवरी को मनाया जा रहा है।
सदियों पुराने इस त्यौहार के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों के हर घर में बकरे काटने की परंपरा है। बकरे की बलि प्रथा स्थानीय देवी-देवताओं को प्रसन्न करने और दुर्गम क्षेत्रों में भोजन की कमी को पूरा करने के लिए शुरू की गई थी। इस प्रथा को 21वीं सदी में भी लोग प्राचीन ढंग से ही निभा रहें हैं।
सिरमौर जिले के गिरीपार क्षेत्र में बकरों की बलि का माघी त्यौहार क्षेत्र का प्रमुख त्यौहार बन गया है। इस त्यौहार में ना सिर्फ देव परंपराएं निभाई जाती है बल्कि मांस खाने के शौकीनों की भी बड़ी मौज लग जाती है। यह त्यौहार अन्य त्यौहारों से अलग इसलिए है क्योंकि इस त्यौहार में जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 40000 बकरों की बलि दी जाती है। मांस भक्षण करने वाले हर परिवार के घर के आंगन में एक या उससे अधिक बकरे काटे जाते है।
इस त्यौहार की एक बड़ी बात यह है कि इस परंपरा के निर्वहन के लिए एक ही दिन लगभग 80 करोड रुपए खर्च कर दिए जाते हैं। इस अनोखे त्यौहार को मनाने के पीछे कारण पहाड़ी देव संस्कृति से जुड़े हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि पहाड़ी देवी-देवता पशुबलि से प्रसन्न होते हैं और देवताओं के प्रसन्न होने से क्षेत्र में समय पर बारिश होती है और ग्रामीण दैवीय आपदाओं से बचे रहते हैं। लेकिन सभी परिवार देवी-देवताओं को बलि देने में समर्थ नहीं होते। इसलिए देवताओं को प्रसन्न करने के लिए साल में 1 दिन बलि प्रदान करने की प्रथा बनाई गई।
इस त्यौहार के पीछे दूसरा बड़ा कारण दूरदराज पहाड़ी क्षेत्रों में खानपान की वस्तुओं की कमी भी बताया जाता है। प्राचीन काल में यह समूचा क्षेत्र बर्फ से ढक जाता था। ऐसे में यहां घर के पालतू जानवरों जैसे बकरा, भेड़, सूअर और खड़डू आदि को पौष्टिक भोजन के रुप में इस्तेमाल किया जाता था।
बलि से पहले बाकायदा देवता की इजाजत ली जाती है। इसके लिए बलि पशु को विशेष प्रक्रिया से गुजारा जाता है। इसके बाद बकरे, खड़डू या सूअर को घर के आंगन में लाकर उसकी बलि चढ़ा दी जाती है। बकरों को काटने के लिए गांव के सभी लोग विशेष कर युवक एकत्र होकर हर घर में जाते हैं और वहां बकरे को काटकर परिजनों को सौंपते हैं। घर की महिलाएं मांस के भोज के लिए विशेष तौर पर रुमाली रोटी बनाती हैं।
ऐसा भी नहीं है कि क्षेत्र का हर परिवार बलि प्रथा के इस त्यौहार को मनाता है बदलते समय के साथ कुछ लोगों ने इस हिंसात्मक त्यौहार से किनारा कर लिया है। हर गांव में कुछ ऐसे परिवार भी मिल जाते हैं जो ना तो परंपरा के नाम पर बकरे की बलि चढ़ाते हैं और ना ही मांस भक्षण करते हैं।
बलि से पहले बाकायदा देवता की इजाजत ली जाती है। इसके लिए बलि पशु को विशेष प्रक्रिया से गुजारा जाता है। इसके बाद बकरे, खड़डू या सूअर को घर के आंगन में लाकर उसकी बलि चढ़ा दी जाती है। बकरों को काटने के लिए गांव के सभी लोग विशेष कर युवक एकत्र होकर हर घर में जाते हैं और वहां बकरे को काटकर परिजनों को सौंपते हैं। घर की महिलाएं मांस के भोज के लिए विशेष तौर पर रुमाली रोटी बनाती हैं।
ऐसा भी नहीं है कि क्षेत्र का हर परिवार बलि प्रथा के इस त्यौहार को मनाता है बदलते समय के साथ कुछ लोगों ने इस हिंसात्मक त्यौहार से किनारा कर लिया है। हर गांव में कुछ ऐसे परिवार भी मिल जाते हैं जो ना तो परंपरा के नाम पर बकरे की बलि चढ़ाते हैं और ना ही मांस भक्षण करते हैं।
बलि प्रथा के विरोध में उनका मानना हैं कि यह प्रथा देव परंपरा के नाम पर लोगों पर थोपी जा रही है। यह बेहद खर्चीला त्यौहार है और क्षेत्र के गरीब लोग इसे नहीं निभा पा रहे हैं क्योंकि आज के समय में एक बकरे की कीमत लगभग 30 से 50 हज़ार तक है। इस प्रथा के विरोधियों का कहना है कि अध्यात्म और कानून भी इसकी इजाजत नहीं देता। इसलिए ऐसे त्यौहारों को बंद किया जाना चाहिए।