राजगढ/शेरजंग चौहान
मौजूदा युवा पीढ़ी ने शायद ही मांदरी के बारे में सुना हो। आपको बता दें कि पहाड़ी चटाई के नाम से पहचान रखने वाली मांदरी को बनाने में उपमंडल के कई गांवों की महिलाएं आज भी निपुण हैं। लाजमी तौर पर आपके जहन में कई सवाल उठ खड़े हुए होंगे। दरअसल, पहाड़ी चटाई सदियों पुरानी कला का एक अदभुत नमूना है। हालांकि अब इसे प्लास्टिक के खाली लिफाफों से भी बनाया जाने लगा है, लेकिन असल में मांदरियां जंगल की हल्दी के पत्तों से बनती थी। जानकारों की मानें तो आज के परिवेश की बनी चटाईयां जैसे बवासीर जैसे रोग को जन्म दे सकती हैं, वहीं हल्दी के पत्तों की चटाईयां इस बीमारी का रामबाण है।
गौरतलब है कि जंगल की हल्दी का इस्तेमाल पहाड़ों में सिडकू बनाने में होता है। इससे व्यंजन का जायका ही बदल जाता है। विशेष बात ये है कि इन चटाईयों को बनाने का हुनर कुदरत ने महिलाओं को ही नवाजा है। उपमंडल के टालिया, कुलथ, शाया, डरेना, चाखल, जदोह, कोटी इत्यादि गांव में पहाड़ी चटाई बनाने में कई महिलाएं माहिर हैं। खबर के साथ प्रकाशित तस्वीर में नजर आ रही मांदरी को कोटी गांव की सुमन चौहान द्वारा बनाया गया है। बता दें कि कला प्रेमी मांदरी का इस्तेमाल वाॅल हैंगिंग के तौर पर कलात्मक प्रयोग के लिए भी करते हैं।
एक जमाने पहले ड्राइंग रूम में सोफा सैट की जगह मांदरियां हुआ करती थी। सोने के लिए भी गद्दों के तौर पर इनका इस्तेमाल हुआ करता था। पहाड़ों पर देवदार के फट्टों पर इसे बिछाने के बाद पाखी का इस्तेमाल ओढ़ने के लिए होता था। गौरतलब है कि पाखी ऊन का एक बहुत बड़ा मोटा पट्टू होता है। खास मेहमानों के लिए भी गद्दों की जगह मांदरी को बिछाने की रिवायत रही है। घर आए मेहमान के लिए मांदरी एक सम्मान का भी प्रतीक होती है। आज भी कई जगहों पर देवता के गांव में श्रद्धालु मांदरी पर नहीं बैठते।
कुल मिलाकर ऐसी अनूठी कला-कृतियों को पुनर्जीवित करने के प्रयास होने चाहिए। चंबा रूमाल की तरह सिरमौर की मांदरी भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने में सक्षम हैं, बशर्ते इसके लिए ठोस प्रयास किए जाएं।