राजगढ़ (शेरजंग चौहान): शावगा क्षेत्र के चबरोण गांव में लगने वाले तीन दिवसीय बिशु मेले का आज समापन हो गया। यह बिशु शिरगुल देवता के नाम पर शावगियों द्वारा हर तीसरे साल आयोजित किया जाता है।
परंपरा के अनुसार शिरगुल देवता के सम्मान में एक वर्ष चूड़धार यात्रा व तीसरे वर्ष बिशु मेले का आयोजन करना आवश्यक परिपाटी मानी जाती है। यह जानकारी देवकार्य के मुखिया रणवीर सिंह शावगी ने दी। उन्होंने बताया कि शिरगुल देवता को खुश करने के लिए 3-5 जून को चबरोण नामक गांव में बिशु मेले का आयोजन किया गया, जिसका आज समापन हो गया है।
उन्होंने कहा कि अगले वर्ष देवता को अपने तीर्थस्थल चूड़धार को स्नान करवाने के लिए ले जाया जाएगा। देवकार्य के उपमुखिया भाग सिंह शावगी ने बताया कि क्षेत्र में लगने वाले सभी बिशु किसी न किसी देवी-देवता के सम्मान में आयोजित किए जाते हैं। इसी प्रथा को बरकारार रखने के लिए इस बिशु का आयोजन किया गया था। संपन्न हुए तीन दिवसीय बिशु में प्रथा के अनुसार कुड़ु-डिब्बर के ठोडा दल द्वारा ‘‘ठोडा’ खेल का प्रदर्शन किया गया।
इस खेल में दो दल शाठा एवं पांशा के सदस्य भाग लेते हैं और एक दूसरे की टांगों पर बाणों से प्रहार करते हैं। शाठा अथवा शाठड़, कौरवों के साठ दल का, जबकि पांशा अथवा पांशड़ पांडव दल का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए इस प्रथा को बरकरार रखने व दर्शकों का मनोरंजन करने के लिए इस बार कुड़ु-लवाणा गांव के ठोडा दल को बुलाया गया था। ठोडा दल के मुखिया राय सिंह ने बताया कि उनका दल स्थानीय दलों के साथ ठोडा खेलने की परंपरा नहीं है जब भी किसी अन्य दल के साथ मुकाबला होता है तो जिला शिमला के किसी दल के साथ ही होता है।
उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि उनका दल पांच गांवों से मिल कर बना है जिसे पारगी दल के नाम से जाना जाता है। इन गांवों में न्हौल, कुड़ु, डिब्बर, ड्रौल व अलोटी के ठोडा खिलाड़ी शामिल हैं। यह दल थुंदली, खशधारू, रजाणा व बिशाड़ी दलों के साथ ही ठोडा खेलते हैं। ये दल तीन दिनों तक श्रद्धालुओं का मनोरंजन करते रहे और अपनी खेल प्रतिभा का प्रदर्शन करते रहे। 5 जून को यह बिशु संपन्न हो गया और खिलाड़ी अपने गांव को रवाना हो गए।
ज्ञात रहे शिरगुल देवता के नाम से लगने वाले इस बिशु का शुभारंभ करने की भी एक अपनी ही परंपरा है जिसे शावगा के श्रद्धालुओं को निभाना पड़ता है। इस प्रथा के अनुसार शिरगुल मंदिर शाया से चभरोण गांव के बिशुस्थल तक, बिशु से पांच दो और एक दिन पहले हर उक्त दिन एक शोभायात्रा निकालनी जरूरी होती है जिसमें चार गांव नेरी, कोटली, सनोहत एवं शाया-चभरोण के श्रद्धालुओं की उपस्थिति अनिवार्य होती है। इसे जुबड़ी यानि मेला मैदान पूजन तथा स्थानीय भाषा में ‘‘नगाड़ा’’ देना कहा जाता है।