मंडी (वी कुमार): भले ही बैंड-बाजे और डीजे की धुनें लोगों को थिरकने पर मजबूर करती हों लेकिन देवभूमि हिमाचल में बजाए जाने वाले पारंपरिक देव वाद्ययंत्रों का महत्व इनके आने से कम नहीं हुआ है। युवा भी इन वाद्ययंत्रों को बजाने में खासी दिलचस्पी दिखाते हैं और यही कारण है कि सदियों से चली आ रही यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जा रही है।
हिमाचल प्रदेश में बजाए जाने वाले पारंपरिक देव वाद्ययंत्रों से निकलने वाली धुनें आज भी उतनी ही सुरली हैं जितनी सदियों पहले हुआ करती थी। न इनकी आवाज में कोई परिवर्तन आया और न ही इन्हें बजाने वालों की कोई कमी खली है।
हिमाचल प्रदेश में देव वाद्ययंत्रों का अपना एक अलग महत्व है। यहां के देवी-देवता इन वाद्ययंत्रों के बिना नहीं चलते। देवरथ को मंदिर से निकालना हो, कहीं ले जाना हो या फिर दोबारा मंदिर में रखना हो तो इन वाद्ययंत्रों को बजाए बिना यह काम नहीं किया जाता। ढोल-नगाड़ों की थाप और करनाल की ध्वनि के बीना देवयात्रा शुरू ही नहीं होती। आधुनिक युग में कई ऐसी प्राचीन कलाएं हैं, जो समय के साथ विलुप्त हो चुकी हैं, लेकिन देव वाद्ययंत्रों को बजाने की यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जा रही है।
आज भी युवा अपने बुजुर्गों से इस कला को सीखने और फिर वाद्ययंत्रों को बजाने में खासी दिलचस्पी दिखाते हैं। यही नहीं युवा इसे अपना सौभाग्य मानते हैं कि उन्हें देवता के वाद्ययंत्रों को बजाने का मौका मिल रहा है। अधिकतर ऐसे बजंतरी भी हैं जिन्हें देव वाद्ययंत्र बजाते-बजाते कई दशक बीत चुके हैं और आज भी वह उसी जोश और उत्साह के साथ इन वाद्ययंत्रों को बजाते हैं।
देवी-देवताओं के वाद्ययंत्रों में मुख्य रूप से शहनाई, कांसे की थाली, ढोल, नगाड़ा, करनाल और रणसिंघा शामिल होते हैं लेकिन इनमें ढोल, नगाड़ा और करनाल सबसे प्रमुख है। यह तीन वाद्य यंत्र हमेशा देवी-देवताओं के साथ नजर आएंगे।
देव समाज में इन वाद्ययंत्रों को बजाने वालों का भी अहम स्थान है। देवरथ की यात्रा में सबसे आगे यही बजंतरी चलते हैं और उसके बाद ही देवरथ चलता है। शासन और प्रशासन भी इन बजंतरियों के मान-सम्मान में कोई कसर नहीं छोड़ता। शहर में हर वर्ष मनाए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव में बजंतरियों के लिए एक प्रतियोगिता करवाई जाती है जिसमें बजंतरी अपनी कला के जौहर दिखाते हैं। वहीं बजंतरियों को हर वर्ष महोत्सव के दौरान मानदेय भी दिया जाता है।
इससे पता चलता है कि शासन और प्रशासन भी इस कला को सहेजे रखने में अपना अहम योगदान दे रहा है। बेशक आज शादी समारोहों में बैंड-बाजे और डीजे ज्यादा ध्यान आकर्षित करते हों लेकिन पारंपरिक वाद्ययंत्रों का महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। शादी समारोहों में इन वाद्ययंत्रों को बजाने की परंपरा आज भी कायम है। चाहे डीजे की धुनों पर लोग जितना मर्जी नाच लें लेकिन इन वाद्ययंत्रों की धुनों पर नाचने का मौका कोई नहीं छोड़ता।