मेरा बचपन
पीपल की छांव में,
अपने ही गांव में,
लंबी सी रेल,
चोर सिपाही और जेल,
शाम तक,
चलता था खेल,
कपड़ों पर मिट्टी के दाग,
मक्की की रोटी,
सरसों का साग,
भरी दोपहरी,
आम के बाग,
जेब में गोटियों का राग,
शहर में लगा था मेला,
घर और स्कूल दोनों भूला,
पांच पैसे की चोरी की,
अम्मा से झूठ बोला,
कान पकड़ कर,
उसने सच्चाई को तोला,
ख्यालों की बस्ती,
कागज की कशती,
काली घटाएं,
और बरसात,
इंद्रधनुष के रंग सात,
नंगे पांव मखमली घास,
दौड़ते-दौड़ते फूली सांस,
भर कर जेब में सात रंग,
सुबह से शाम टोली के संग,
बजे ढोल मंजीरे मृदंग,
नाचे गाये हुआ खूब हुडदंग,
चहकी चिड़ियां हुई भोर,
आंखें मलते-मलते,
उठाई पतंग और डोर,
दूर तक उड़ने की चाहत,
पहुंच जाऊं उस ओर,
इसके सहारे नाप दूं,
धरती के सारे छोर,
पतंग कटते ही,
हुआ बहुत शोर,
सपने बिखरे,
हाथ रह गयी डोर,
ईद का दिन हो,
या दिवाली की रात,
अब,
कहां रही वो बात,
मासूम से जज्बात,
पूछते हैं,
बदल रहे हालात से,
किसने छीन ली
मेरे बचपन की सौगात……
-मोहम्मद कय्यूम सैय्यद की कलम से……
पुस्तक: -चांद पर अब परियां नहीं रहती