घुमारवीं (सुभाष कुमार गौतम) : हिमाचल प्रदेश की शिवालिक हिल रेंज की पहाडियों में बसा जिला बिलासपुर अपनी देव संस्कृति के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। इस जिला में कई धार्मिक स्थल पाए जाते हैं जिनमें से नैना देवी, मार्कडे शाहतलाइ, उत्तर भारत के प्रसिद्ध शक्ति पीठ है, लेकिन इन सबसे हट कर एक धार्मिक स्थल ऐसा है जहाँ लोग पूरी श्रद्धा के साथ चले आते हैं। समुद्र तल से लगभग दो हजार फीट की ऊँचाई पर बसा यह धार्मिक स्थल भ्याणू पीर लखदाता के नाम से जाना जाता है।
भ्याणू पीर लखदाता एक मुस्लिम देव स्थान है, लेकिन जिला में बसे इस देव स्थान में हिंदू व मुस्लमानों की देव आस्था को देखकर अाप भी हैरान रह जाएंगे। यहाँ हिंदू धर्म व मुस्लिम धर्म का अनूठा संगम है यह देव स्थान कब और किसने बनाया कोई नहीं जानता। हां, इतना माना जाता है कि जब भारत में मुस्लिम या हूण जाति के लोगों का राज रहा होगा तब यह भ्याणू पीर उनकी जाती का ईष्ट गुरु या फिर धर्म प्रचारक रहा होगा, जिसकी मौत के बाद उसको इस सथान पर दफन किया होगा। तब से लेकर अब तक यह लोगों की धार्मिक आस्था का प्रतीक बना हुआ है।
बिलासपुर मुख्यालय से कंदरौर हबाण होकर इस जगह बस या गाड़ी द्वारा पहुंचा जा सकता है जबकि मंडी के त्रिफालघाट से इसकी दूरी छ: किमी है इस कारण यहाँ कई जिलों के लोगों दर्शन के लिए आते हैं। परिवार व पशु धन की सुख शांति के लिए लोग वरदान मॉगते हैं। माना जाता है कि जिन लोगों को मिटटी खाने की आदत होती है अगर वहां की मिट्टी लाकर उन लोगों को खिलाई जाए तो यह आदत छूट जाती है व इस मिट्टी के खाने से कई बीमारियां ठीक होती हैं । यहां का वाद्य यंत्र मात्र टमक है जो हमेशा बजाया जाता है सबसे बड़ी बात यह है कि इसके पूजारी राजपूत जाती के लोग हैं।
कहा जाता है कि जो लोग पूजा के लिए अंदर जाते हैं वे अंदर बनी मजार की परिक्रमा करने के बाद उसकी तरफ पीठ नहीं करते साधारण बात में के जिस तरह अंदर जाते है वैसे ही मुह मजार की तरफ करके बाहर निकते है नहीं तो मुऱाद पुरी नहीं होती। माना जाता है कि वीरवार का दिन भ्याणू पीर लखदाता के दर्शनों के लिए शुभ माना जाता है और इस दिन लोगों का हजूम उमड जाता है। लोग अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए वहां बने मैदान में वाद्य यंत्र टमक को वहां के लोगों से बजवाते हैं व कुछ पैसे देकर बच्चों से कुश्ती करवाते है।
जिला में होने वाले बड़े-बड़े दंगल चहे वह बिलासपुर की नलवाडी हो या घुमारवीं का ग्रीष्मोत्सव या फिर कोई अन्य बड़ा दंगल इस टमक की थाप से शुरू और खत्म होता है। इस की सबसे बड़ी हकीकत यह है कि इस टमक को मुस्लिम जाति के लोग ही बजाते हैं कयोंकि टमक के बजाने से दंगल करवाने की मनोकामना पूरी होती है जो प्राचीन काल से चली आई है।