तामिलनाडू की तरह…! हिमाचल में भी जलीकटटू जैसा खेल खेला जाता है। फर्क सिर्फ इतना है। तामिलनाडू में जलीकट्टू के मुख्य किरदार ‘बैल’ हैं। जबकि हिमाचली किरदार ‘झोटे’ हैं। खेल फार्मेट में भी आंशिक अंतर है। तामिलनाडू में जहां जलीकटटू में। बैलों को काबू में कर विजयी होने की परम्परा है। वहीं हिमाचल में झोटों को आपस में भिड़ाकर। विजयी झोटे के मालिक के पुरस्कृत होने का प्रचलन है।
अर्की और शिमला क्षेत्र…! यहां आयोजित होने वाले सायर उत्सव व ग्रामीण मेलों में। झोटों की लड़ाई का पुराना प्रचलन था। किन्तु कोर्ट के आदेश के उपरांत। इस ग्रामीण खेल पर अब प्रतिबंध है। तामिलनाडू में जलीकटटू पर लाए गए अध्यायदेश। और केन्द्र सरकार के समर्थन के उपरांत। अब प्रश्न उठता है। क्या हिमाचल में भी सायर जैसे उत्सवों में। झोटों की लडाई के खेल को पुनः जीवनदान मिलेगा…? पर अभी तक किसी संस्था या क्षेत्र विशेष ये यह मांग उठी नहीं है।
सायर उत्सव में झोटों की लड़ाई….! अर्की और शिमला के कुछ क्षेत्रों में झोटों की लड़ाईनुमा खेल की प्राचीन परम्परा है। विशेषकर सायर मेला अर्की में झोटों की लड़ाई काफी पुराना और प्रसिद्ध ग्रामीण खेल है। इसे देखने दूर-दूर से हजारों लोग यहां आया करते थे।
शिमला के क्रेगनेनो…! यहां संक्रांति के अवसर। ‘झोटों का मेला’ नाम से एक ग्रामीण मेले का आयोजन होता है। किन्तु इस मेले में झोटों को अब भिड़ाया नहीं जाता है। यद्यपि नुमाईश के लिए या फिर। प्रतीकात्मक रूप से झोटों को यहां लाया जाता है।
तामिलनाडू का जलीकटटू…! इस खेल में बैल को काबू में किया जाता है। यह खेल बरसों से तमिलनाडु में खेला जा रहा है। तमिलनाडु में मकर संक्रांति का पर्व पोंगल के नाम से मनाया जाता है। इस खास मौके पर जलीकट्टू के अलावा बैल दौड़ का भी कई जगहों पर आयोजन किया जाता है।
जानकारों के अनुसार…! जलीकट्टू तमिल शब्द सल्ली और कट्टू से मिलकर बना है। जिनका मतलब सोना-चांदी के सिक्के होता है। जो कि सांड़ के सींग पर टंगे होते हैं। बाद में सल्ली की जगह ‘जल्ली’ शब्द ने ले ली।
जलीकट्टू के आयोजन में…! बिना लगाम (पगहा और नाथ) के बैलों और सांड़ों को दौड़ाया जाता है। जिन्हें लोग रोकने की कोशिश करते हैं। जो बैलों पर लगाम कसकर उसे काबू कर लेता है। उसे विजयी माना जात है। सांड़ पर कूदकर चढ़ने वाले से उम्मीद की जाती है। वह उसकी पीठ या कूबड़ पर लटककर। एक खास दूरी तक जाए। या सांड़ कम से कम तीन बार कूदे। इस दौरान कई लोग बुरी तरह से घायल हो जाते हैं। कुछ लोगों की मौतें भी हो चुकी हैं।
स्वयंवर चुनने की परम्परा…! पुराने समय में यह परंपरा योद्धाओं के बीच भी लोकप्रिय थी। इस खेल का आयोजन स्वयंवर की तरह होता था। जो योद्धा बैल पर काबू पाने में कामयाब होता था। महिलाएं उसे अपने वर के रूप में चुनती थीं। (image credit H.W.)
(#Himachali Jalikattu #Sayarutsav
-आनंद राज
अर्की और शिमला क्षेत्र…! यहां आयोजित होने वाले सायर उत्सव व ग्रामीण मेलों में। झोटों की लड़ाई का पुराना प्रचलन था। किन्तु कोर्ट के आदेश के उपरांत। इस ग्रामीण खेल पर अब प्रतिबंध है। तामिलनाडू में जलीकटटू पर लाए गए अध्यायदेश। और केन्द्र सरकार के समर्थन के उपरांत। अब प्रश्न उठता है। क्या हिमाचल में भी सायर जैसे उत्सवों में। झोटों की लडाई के खेल को पुनः जीवनदान मिलेगा…? पर अभी तक किसी संस्था या क्षेत्र विशेष ये यह मांग उठी नहीं है।
सायर उत्सव में झोटों की लड़ाई….! अर्की और शिमला के कुछ क्षेत्रों में झोटों की लड़ाईनुमा खेल की प्राचीन परम्परा है। विशेषकर सायर मेला अर्की में झोटों की लड़ाई काफी पुराना और प्रसिद्ध ग्रामीण खेल है। इसे देखने दूर-दूर से हजारों लोग यहां आया करते थे।
शिमला के क्रेगनेनो…! यहां संक्रांति के अवसर। ‘झोटों का मेला’ नाम से एक ग्रामीण मेले का आयोजन होता है। किन्तु इस मेले में झोटों को अब भिड़ाया नहीं जाता है। यद्यपि नुमाईश के लिए या फिर। प्रतीकात्मक रूप से झोटों को यहां लाया जाता है।
तामिलनाडू का जलीकटटू…! इस खेल में बैल को काबू में किया जाता है। यह खेल बरसों से तमिलनाडु में खेला जा रहा है। तमिलनाडु में मकर संक्रांति का पर्व पोंगल के नाम से मनाया जाता है। इस खास मौके पर जलीकट्टू के अलावा बैल दौड़ का भी कई जगहों पर आयोजन किया जाता है।
जानकारों के अनुसार…! जलीकट्टू तमिल शब्द सल्ली और कट्टू से मिलकर बना है। जिनका मतलब सोना-चांदी के सिक्के होता है। जो कि सांड़ के सींग पर टंगे होते हैं। बाद में सल्ली की जगह ‘जल्ली’ शब्द ने ले ली।
जलीकट्टू के आयोजन में…! बिना लगाम (पगहा और नाथ) के बैलों और सांड़ों को दौड़ाया जाता है। जिन्हें लोग रोकने की कोशिश करते हैं। जो बैलों पर लगाम कसकर उसे काबू कर लेता है। उसे विजयी माना जात है। सांड़ पर कूदकर चढ़ने वाले से उम्मीद की जाती है। वह उसकी पीठ या कूबड़ पर लटककर। एक खास दूरी तक जाए। या सांड़ कम से कम तीन बार कूदे। इस दौरान कई लोग बुरी तरह से घायल हो जाते हैं। कुछ लोगों की मौतें भी हो चुकी हैं।
स्वयंवर चुनने की परम्परा…! पुराने समय में यह परंपरा योद्धाओं के बीच भी लोकप्रिय थी। इस खेल का आयोजन स्वयंवर की तरह होता था। जो योद्धा बैल पर काबू पाने में कामयाब होता था। महिलाएं उसे अपने वर के रूप में चुनती थीं। (image credit H.W.)
(#Himachali Jalikattu #Sayarutsav
-आनंद राज