नाहन (एमबीएम न्यूज) : कभी अनाज पीसकर दूसरे का पेट भरने का साधन जुटाने वाले घराट संचालकों को अब रोजी रोटी के लाले पडऩे शुरू हो गए हैं। दिन-प्रतिदिन सिमटते जा रहे इन परंपरागत घराटों के कारोबार के कारण घराट संचालकों के माथे पर चिंता की लकीरें हैं।
पूरे प्रदेश में जहां कुछ सालों पूर्व परंपरागत घराटों का प्रचलन था, वहीं आज के समय में नदी-नालों में पानी का स्तर कम होने के कारण तथा लोगों के पास समय के अभाव के चलते इन घराटों का अस्तित्व न के बराबर रह गया है। जिला सिरमौर-शिमला व साथ में लगते उत्तराखंड क्षेत्र के ऊपरी क्षेत्र के गांव में दस साल पहले तक करीब साढ़े तीन सौ से अधिक घराट थे। इनमें से अब नाममात्र घराट ही चालू हालत में हैं। शेष घराट बंद हो चुके हैं। ये घराट भी बंद होने के कगार पर हैं।
पहले ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में बिजली की चक्की न होने से लोग गेहूं, मंडुवा व मक्की पिसवाने के लिए घराटों पर आश्रित थे। कुछ साल पहले तक गिरिपार क्षेत्र के हर गांव में दो से लेकर पांच तक घराट थे। लेकिन नदी, खड्ड और नालों में पानी की कमी और नई तकनीक के अभाव में पिछले 10 सालों में कई घराट बंद हो चुके हैं। मिनस निवासी घराट संचालक तेलु राम का कहना है कि आज से पांच साल पहले उसका परिवार घराट की कमाई पर निर्भर था। मगर अब उसके घराट पर कोई भी अनाज पिसाने नहीं आता है। इससे उसके परिवार के सामने रोजी-रोटी की समस्या पैदा हो गई है।
घराट संचालक खमरौली भोलादास निवासी का कहना है कि अब लोग गांव में ही चक्की पर अनाज पिसाने लगे हैं, क्योंकि नदी नालों मे घटते जलस्तर से उसके घराट केवल अगस्त-सितंबर में चलते हैं। राजगढ़ निवासी प्रेम पाल स्याणा का कहना है कि हर गांव में अब आटा चक्की होने के कारण लोगों की अब घराटों पर निर्भरता घट गई है। घराट पर अनाज पिसाने में पूरा दिन लग जाता है।
क्षेत्र के बुजुर्ग लोगों का कहना है कि घराटों से पीसा हुआ आटा खाने मे स्वादिष्ट होता है। साथ ही इसकी गुणवत्ता भी बहुत अच्छी होती थी। जबकि बिजली द्वारा संचालित चक्की का आटा न ही खाने में स्वादिष्ट है न ही इसमेें पौष्टिकता होती है। सिरमौर जिला के घराट संचालकों ने मुख्यमंत्री से मांग कि है कि घराटों को नई तकनीक से जोड़ा जाए, तो इन शेष बचे परंपरागत घराटों का अस्तित्व बच सकता है।