घुमारवीं से सुभाष गौतम की रिपोर्ट
हिमाचल प्रदेश का मशहूर लोकगीत ‘मोहणा’ 100 साल का हो गया है। सन् 1922 ई. में बिलासपुर के बेडी़घाट में सतलुज नदी के किनारे एक बेकसूर व्यक्ति को फांसी पर लटका दिया गया था। उसका नाम मोहन था। उसे फांसी पर लटकाने के बाद लोक कवि मुखर हो गया था। उसके मुंह से वह गीत निकला जो हिमाचल प्रदेश का एक अमरगीत बन गया है।
गीत के बोल हैं…
12 बजि गे ओ मोहणा ,12 बजि गे
राजे रिआ हत्थे रिआ घडि़या ,12 बजि गे
आया मरणा वो मोहणा ,आया मरणा
पाईए रिआँ कित्तियां ,आया मरणा
खंभ गड्डि गे , वो मोहणा, खंभ गड्डि गे
इसा बेडि़या रे घाटे ,खंभ गड्डि गे
आईयां मिसलां वो मोहणा
आईयां मिसलां , बाहदरपुरे ते आईयां मिसलां
खाई लै रोटियां वो मोहणा ,खाई लै रोटियां
अम्मा रे हथो रिआं ,खाई ले रोटियां
अंगणा रोंदि लालो मयाणि ,वो मोहणा
आया मरणा वो मोहणा ,आय मरणा…….।
सच दस्सयां किनी वो मारया ,
मसद्दी हौलदार….।
समय-समय पर इस गीत को गाने वालों ने अपनी मर्जी से शब्दों को जोड़ा,काटा, छांटा। लेकिन गीत का भाव नहीं बदला। गीत में दर्द व्यथा वैसी ही बनी रही। हां, कुछ लोग इतिहास से खिलवाड़ कर देते है। मोहन की फांसी सांढू मैदान में बता देते है और वैसे ही गाते भी हैं, लेकिन मोहन को फांसी बेड़ी घाट में दी गई थी। यही वास्तविकता है।
दरअसल, मोहन के दो भाई और थे। इनमें तुलसी सबसे बड़ा था। मोहन मंझला और लच्छमण सबसे छोटा था। तुलसी राजा के पास नौकरी करता था। ये घुमारवीं के कसोल के समीप रंडोह गांव के रहने वाले थे। इनकी अपने पड़ोसी मसद्दी से बीड़ बन्ने की लडा़ई रहती थी। मसद्दी फौज में हवलदार था। एक दिन तुलसी ने उसको मार दिया और उसकी लाश खेतों में पत्थरों से दबा दी। कुछ समय बाद वहां पर कौए और चीलें झपटने लगे। तब लोगों को पता चला कि यह मसद्दी की लाश है।
राजा ने छानबीन करवाई तो पता चला कि यह हत्या तुलसी ने की है। लेकिन तुलसी ने अपने सीधे-साधे भाई मोहन को विश्वास में लेकर कहा कि तू हत्या का आरोप अपने ऊपर ले लेना। वह उसे राजा से छुड़वा देगा। उसकी राजा बहुत मानता है। मोहन भाई की बातों में आ गया। वह आखिर तक यही कहता रहा कि उसने ही हत्या की है। राजा ने उसे बहुत समझाया कि उसे पता है कि तुमने मसद्दी को नहीं मारा है। सच बता दो लेकिन मोहन नहीं माना। वह यही रट लगाए रहा कि उसने ही मारा है। राजा धार्मिक प्रवृत्ति का था। वह धर्म संकट में पड़ चुका था। कई बार वह बहादुरपुर के किले में, रेस्ट हाउस में जाकर बैठ जाता और चिंतन करता कि वह मोहन को फांसी कैसे दे?
आखिर उसने मन बनाया और मोहन को फांसी के आदेश सुना दिए। बेड़ी घाट में जब मोहन को फांसी हुई तो हजारों लोग उस दृश्य को देखने आए थे। शक्ति सिंह चंदेल अपनी पुस्तक “Kehloor BILASPUR through the centuries” में लिखते हैं कि जुखाले की तरफ के लोग गाते चले गए। इस तरह मोहणा गीत अमर हो गया। आज इसको गाते-गाते 100 साल बीत गए हैं। जब भी कहीं इसे कोई लंबी तर्ज में गाता तो सुनने वाला ठिठक सा जाता है। एकाएक वह यादों में खोता चला जाता है।