शिमला : सूबे में पंचायतीराज के साथ-साथ शहरी निकायों के चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। सरकार के मंत्रियों ने चुनाव को समय पर करवाने की बात कहकर राजनीतिक हलकों में चर्चा शुरू कर दी है। अतीत की तरफ नजर दौड़ाई जाए तो 2010 में मुख्यमंत्री रहते हुए प्रेम कुमार धूमल ने शहरी निकायों में अध्यक्ष व उपाध्यक्ष के परोक्ष चुनाव करवाने का रिस्क लिया था। चूंकि चुनाव में ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था, लिहाजा पार्टी सिंबल पर चुनाव करवाने में कोई भी तकनीकी परेशानी नहीं थी।
हालांकि बाद में सत्ता संभालने के बाद वीरभद्र सरकार ने इस फैसले को पलट दिया था। परोक्ष चुनाव इस कारण भी अहम था, क्योंकि इसे राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह पर लड़ा गया था। लाजमी सी बात है कि सिंबल पर चुनाव होने से राजनीतिक दल की असल स्थिति सामने आई थी। यह अलग बात है कि पंचायतीराज के चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं हुए थे। 2010 में परोक्ष चुनाव करवाकर धूमल सरकार की लोकप्रियता का भी परीक्षण हुआ था। शहरी निकायों में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष के अलावा पार्षद के वोट डले थे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि परोक्ष चुनाव में कई विसंगतियां भी रह गई थी। कई स्थानों पर ऐसे अध्यक्ष बन गए थे, जिनके पास सदन में बहुमत नहीं था।
अब सवाल उठता है कि क्या पुरानी विसंगतियों को दूर कर जयराम सरकार भी अपनी लोकप्रियता का परीक्षण करवाने का जोखिम उठाएगी या नहीं। बता दें कि पंचायतीराज मंत्री भी यह साफ कर चुके हैं कि आरक्षण रोस्टर को 31 जुलाई तक तय कर लिया जाएगा। इस चुनाव में यह रोस्टर भी काफी मायने रखता है। इसी से तय होता है कि कौन सा वार्ड किस वर्ग के लिए आरक्षित होगा। अपुष्ट खबरों की मानें तो जयराम सरकार ने भी परोक्ष चुनाव करवाने के संकेत करीब 6 से 8 महीने पहले दिए थे।
शहरी विकास विभाग की आधिकारिक वैबसाइट के मुताबिक राज्य में 50 नगर परिषदें व नगर पंचायतें हैं, इसमें धर्मशा ला व शिमला नगर निगम भी शामिल हैं। दीगर है कि पिछले चुनाव को लेकर दिसंबर 2015 में अधिसूचना जारी हो गई थी, जबकि चुनाव जनवरी 2016 में हुए थे। शहरी निकायों के चुनाव में ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था। कुल मिलाकर चुनाव परोक्ष होंगे या नहीं, इसकी तस्वीर अगले 8 से 10 सप्ताह के बीच साफ होने की उम्मीद है।
अपरोक्ष होने की स्थिति…
अगर सरकार चुनाव को अपरोक्ष करवाने का फैसला लेती है तो उस स्थिति में अध्यक्ष व उपाध्यक्ष को चुनने की चाबी पार्षदों के हाथ में रहेगी। इसमें अमूमन सत्ता में रहने वाले राजनीतिक दल को फायदा मिलने की संभावना भी रहती है। कई बार अंक गणित का पेंच अड़ जाने पर तोल-मोल भी होता है। उदाहरण के तौर पर अगर मान लिया जाए कि एक नगर परिषद का अध्यक्ष पद महिला के लिए आरक्षित है, जिसे अध्यक्ष की कुर्सी तो मिलती है लेकिन बाद में अविश्वास प्रस्ताव के बाद पद छोड़ना पड़ता है। ऐसी सूरत में राजनीतिक दल के पास दूसरी महिला नहीं होती है तो विरोधी खेमे से चुनाव जीती महिला की लाॅटरी खुल जाती है। यही स्थिति आरक्षित सीटों पर कई स्थानों पर होती है।।