नाहन: एक दिहाड़ीदार पिता गंगूराम सपने में भी नहीं सोच सकता था कि बेटे को जन्म लेते ही एक गंभीर पीड़ा से गुजरना होगा। मामूली सी देरी उसके जीवन पर भारी पड़ सकती है। कौलावालांभूड के समीप ढांगवाली गांव में पांच साल की हर्षिता व चार साल की निहारिका अपने इकलौते भाई को गोद में उठाने के लिए बेकरार हैं, मगर 22 दिन के हो चुके भाई को फिलहाल गोद में उठाने की अनुमति माता आशा देवी व पिता गंगूराम से नहीं मिल रही है। इस मामले में सबसे बड़ी बात यह है कि प्रशासन की कोशिश आज इस कारण रंग ले आई है, क्योंकि बच्चा घर लौट आया है। वापसी की व्यवस्था भी प्रशासन द्वारा निशुल्क ही उपलब्ध करवाई गई।
एमबीएम न्यूज नेटवर्क ने 18 अप्रैल से लगातार इस खबर का पीछा किया है। इस मामले में कई ऐसे पहलू हैं, जो वास्तव में इस बात की तस्दीक करते हैं कि हर शख्स धन का लोभी नहीं है। मेडिकल कॉलेज में शिशुरोग विशेषज्ञ डॉ. दिनेश बिष्ट दो दिन के शिशु के जीवन के सबसे पहले मसीहा बने। डीसी डॉ. आरके परुथी ने झटपट ही मासूम को गुरुग्राम पहुंचाने की जिम्मेदारी उठा ली। एक कठिन परीक्षा का सामना पायलट राम सिंह ने 17 अप्रैल को किया, जब मात्र सवा तीन घंटे में मासूम को गुरुग्राम पहुंचा दिया।
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परिवार की आर्थिक स्थिति को भांपते हुए गुरुग्राम में आर्टेमिस के संस्थापक डॉ. असीम आर श्रीवास्तव ने मुकम्मत सर्जरी की व्यवस्था निशुल्क करने का जिम्मा उठा लिया। खुद गंगूराम कहते हैं कि एक रुपया भी खर्च नहीं हुआ। यहां तक की ब्लड का इंतजाम भी अस्पताल ने ही किया। अन्यथा सर्जरी पर 5 से 6 लाख रुपए खर्च होने थे। लिहाजा वो धारणा गलत साबित हो गई, जिसमें कहा जाता है कि निजी अस्पतालों द्वारा मरीजों की आड़ में चांदी कूटी जाती है। यह अलग बात है कि ऐसी सोच रखने वाले निजी अस्पताल बेहद ही दुर्लभ होंगे।
गरीब बोला….
साहब, मैं तो लाखों रुपए खर्च करने की स्थिति में ही नहीं था। दिहाड़ी मिले तो ठीक है, अन्यथा थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी से गुजारा करना पड़ता है। मुझे तो हर कदम पर मदद मिली। सबसे पहले अस्पताल के डॉ. दिनेश बिष्ट का आभारी हूं, जिन्होंने सही मार्गदर्शन किया। डीसी व एसडीएम साहब ने निशुल्क एंबूलेंस मुहैया करवाई तो पायलट राम सिंह ने लंबी दूरी को सवा तीन घंटे में पूरा कर लिया। अस्पताल पहुंचा तो काफी दबाव में था। समझ नहीं आ रहा था कि कैसे इलाज होगा, कितना खर्च आएगा। लेकिन वहां भी मसीहा ही मिले। डॉ. श्रीवास्तव ने इतनी इम्दाद की कि मैं सोच भी नहीं सकता था। सच कहूं तो घर से सैंकड़ों किलोमीटर दूर एक रुपए का खर्चा भी नहीं हुआ। 3-4 रक्तदाताओं का भी आभार व्यक्त करना चाहता हूं, जो बच्चे को बचाने के लिए अपना रक्त देने अस्पताल पहुंच गए।