नाहन (एमबीएम न्यूज) : बुधवार को शहर में मुहर्रम के अवसर पर ताजियों का जुलूस निकाला गया। अमूमन देश के विभिन्न हिस्सो में ताजिए निकालने की परंपरा शिया समुदाय द्वारा निभाई जाती है। लेकिन शहर में दशकों से इस परंपरा को सुन्नी समुदाय के लोग निभाते आ रहे हैं। विभिन्न मस्जिदों से आए चारों ताजिए कच्चा टैंक स्थित जामा मस्जिद में एकत्रित हुए।
हजरत इमाम हुसैन की याद में निकाले गए ताजियों के समक्ष मुस्लिम युवकों ने मातम किया। इससे पूरा वातावरण या हुसैन-या हुसैन से गूंज उठा। समुदाय के युवकों ने स्वयं को विभिन्न तरह की यातनाएं देकर व छाती पीटकर हजरत हुसैन की शहादत को याद किया।
इससे पूर्व दिन के समय ताजियों का जुलूस गुन्नूघाट से शुरु हुआ। यहां से हरिपुर, रानीताल होता हुआ जुलूस ताजिए को साथ लेकर कच्चा टैंक स्थित जामा मस्जिद पहुंचा। शहर के अलग-अलग जगह से चार ताजिए जामा मस्जिद में एकत्रित हुए। इस दौरान सुन्नी समुदाय के लोगों का जोश देखते ही बनता था। मर्शिया पढ़ते व मातम मनाते युवकों ने या हुसैन या हुसैन के नारे लगाकर मुहर्रम को पारंपरिक तरीके से मनाया। देर शाम मस्जिद के निकट करबला में इन ताजियों को वापिस विदाई दी गई। इस दौरान हजारों की तादाद में मुस्लिम व हिंदू समदाय के अन्य लोग उपस्थित थे।
अनोखी है शहर की रिवायत।
हिमाचल प्रदेश का नाहन एक ऐसा शहर है, जहां मुहर्रम के मौके पर हजरत इमाम हुसैन की शहादत को याद कर सुन्नी समुदाय के मुस्लिम मातम प्रकट करते हुए शहर में ताजिए निकालते हैं। यह रिवायत रियासतकालीन समय से चली आ रही है। नाहन शहर में शिया समुदाय का एक भी परिवार नहीं है। फिर भी सुन्नी-शिया समुदाय की रिवायत को निभाते आ रहे हैं। वर्षों से सुन्नी समुदाय के मुस्लिम अनोखी मिसाल पेश कर रहे हैं।
शहर के चार मोहल्लों गुन्नूघाट, हरिपुर, रानीताल और कच्चा टैंक में सुन्नी समुदाय के लोग मुहर्रम से दस दिन पहले ताजिए बनाने शुरू कर देते हैं। दिन-रात काम करने के बाद आकर्षक व सुंंदर ताजिए तैयार होते हैं। मुहर्रम के दिन चारों मोहल्लों से सुन्नी समुदाय के लोग ताजियों को लेकर जामा मस्जिद कच्चा टैंक इकट्ठे होते हैं।
इस मौके पर पूरे रास्ते समुदाय के लोग मर्शिया पढ़ते हैं। युवा इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए मातम के दौरान ‘या हुसैन या हुसैन’ कहते हुए छातियां पीटते हैं। इस मौके पर युवा व बच्चे अनेक जंगी करतब भी दिखाते हैं।
18वीं शताब्दी में हुआ आरंभ
सुन्नी मुस्लिमों द्वारा मुहर्रम मनाने की परंपरा 18वीं शताब्दी में महाराजा शमशेर प्रकाश के समय में शुरू हुई थी। उस समय यहां कुछ शिया परिवार रहते थे। वह परिवार अब यहां पर नहीं रहते। महाराजा सुरेंद्र प्रकाश के समय में इस बारे में एक फरमान जारी हुआ था कि सभी धर्मों के लोग इस समारोह में शामिल होंगे। आज भी सुन्नी मुस्लिम रियासतकाल की इस परंपरा का लगातार निवर्हन कर रहे हैं।