इंतजार
हर रोज आया मैं बार-बार,
पर खत्म न हुआ इंतजार,
इस मोड़ से हम,
एक दिन जुदा हुए थे,
यह सोच कर के,
फिर मिलेंगे,
यह था एतबार,
पर ऐसा न हुआ,
मैं इस चौराहे पर लैंप पोस्ट के,
नीचे खड़ा रहा,
खड़े-खडे़ थक गया,
कभी बैठ गया,
कभी घुटनों पर,
आंखें बंद करके,
सिर रख लिया,
गुजरती हुई गाड़ी का,
हॉर्न मुझे चौंका देता है,
पर गाड़ी शोर मचाती,
मेरी खिल्ली उड़ाती,
गुजर जाती है,
कभी इस पार,
कभी उस पार देखता हूं,
किस गाड़ी से उतर कर,
वह मुझ से मिलने आए,
पर हर रोज,
सुबह की पहली किरण,
मुझ से कुछ वादे करके,
फिर उसी लैंप पोस्ट,
पर ले आती है,
इसी तरह न जाने,
कितने ही, मौसम बदल गए,
शाम को सूरज,
अपना कारोबार समेट,
एक झूठा सा, दिलासा देकर,
मुझ से आंखें फेर लेता है,
मैं उसकी तलाश में ,
कहीं ओर निकलूं भी,
तो कैसे, क्योंकि……
इसी लैंप पोस्ट के नीचे,
मिलने का वादा किया था उसने,
मैं उसकी तलाश में निकलूं,
और वह आ जाए,
मुझे यहां न पाकर,
कहीं, बेवफा न कह जाए,
बाद मेरे मरने के,
गर वह आए,
ऐ! चौराहे, लैम्प पोस्ट,
सूरज, परिंदे, बरगद, मौसम,
तुम सब मेरी गवाही देना,
कि मैं इंतजार करता रहा-करता रहा,
जिसकी कभी हो सकी न इन्तहां।।
-मोहम्मद कय्यूम सैय्यद की कलम से……
पुस्तक: -चांद पर अब परियां नहीं रहती
पुस्तक: -चांद पर अब परियां नहीं रहती