आतंकवाद
महफूज नहीं हम जिसके रहते
खून की नदियां जो बहाता है,
बिजली की तरह गरजता है
बादल की तरह छा जाता है।
पहले आंख मिचौली होती है
फिर दहशत फैलाता है,
मंद पड़ जाते सबके चेहरे
खुशियों को ग्रहण लग जाता है।
मानवता जिसकी दुशमन है
मौत से जिसका नाता है,
क्या मजहब हो सकता है उसका
जे हर वक्त दहशत चाहता है।
मानवता का नाश करके
अपने लक्ष्य को पाता है,
लाशे बिछ जाती निर्दोषों की
बेबसों की आंसुओं से नहाता है।
दैहला दे सबके मन को
काम वो ये कर जाता है,
मार जाता बेरहम सबको
आतंकवाद वो कहलाता है।
-गोविंद ठाकुर की कलम से……
काव्य संग्रह: जीवन समर