राजगढ़ (एमबीएम न्यूज): लकड़ी के ढारे में चार साल बिताने के बाद शिरगुल जी महाराज को परंपरागत शैली में नवनिर्मित मंदिर में सिंहासन मिल गया है। भगवान शिरगुल की अपनी जन्मस्थली का प्राचीन शाया मंदिर 2013 में अग्रि की भेंट चढ़ गया था। तब से आज तक मंदिर का निर्माण पुराने स्वरूप में करने की कोशिश चल रही थी, जो बुधवार को उस वक्त रंग लाई, जब भगवान शिरगुल महाराज जी पूरी शान से यहां स्थापित हुए।
प्राचीन मंदिर के आग की भेंट चढऩे के बाद भगवान शिरगुल की प्रतिमाएं लकड़ी के ढारे से बने मंदिर में ही रखी गई थी। शिरगुल मंदिर के मुख्य द्वार का निर्माण शावगी, मावी व पटगांवी प्रगणा के श्रद्धालुओं के सहयोग से पूरा किया गया। मंदिर निर्माण समिति के अध्यक्ष अमर सिंह ने बताया कि इस वैकल्पिक मंदिर के अंतिम कार्य के रूप में ‘कुरूड’ लगाने का कार्य शेष बचा था, जिसे आज छत पर विधिवत चढ़ा दिया गया।
कुरुड देवदार की लकड़ी की लंबी शहतीरी होती है, जो त्रिकोणीय शक्ल में कुरेदी होती है। जिसे मंदिर की छत के सबसे ऊपर स्थापित किया जाता है। इसके बाद कार्य को पूर्ण माना जाता है। इस शहतीरी को जंगल में निर्मित करने के बाद मुहूर्त वाले दिन हजारों श्रद्धालुओं की उपस्थिति में हाथोंहाथ उठाया जाता है। आज इसे छत के बीचोंबीच वाले हिस्से में स्थापित किया गया। शहतीरी को स्थापित करने का समय अमूमन तडक़े अंधेरे में ही होता है। इसके लग जाने के बाद सात्विक रूप से नारियल की बलि दी गई।
इस दौरान साथ-साथ मंत्रोचारण चलता रहा। जिस कारीगर ने छत का निर्माण किया, उसे एक श्रद्धालु की पीठ पर बिठाकर छत से नीचे उतारा गया। कारीगर को कपड़ों के अलावा कांस्य की थाली, गिलास व लोटा भेंट किया गया। उसके बाद चुनिंदा श्रद्धालुओं को कारीगर द्वारा ऋणमुक्त करने के चावल दिए गए। साथ ही यह भी बोला कि अब उसकी तरफ कुछ भी शेष नहीं है, मैंने आपको आपका मंदिर सौंप दिया है। इसके बाद मंदिर में देवताओं की प्रतिमाओं का अनुष्ठान पूरा किया गया।
जाति का टूटा बंधन…
भगवान शिरगुल जी महाराज के नवनिर्मित मंदिर में जाति का बंधन नहीं होगा। मंदिर के भीतर कोई भी जाति का व्यक्ति नहीं प्रवेश कर पाएगा, बल्कि चबूतरे से ही तमाम धर्मों के लोग एक ही जगह से भगवान के दर्शन कर पाएंगे। पहले स्वर्ण जाति को भीतर जाने की अनुमति थी, लेकिन अन्य जातियों के लोग बाहर से ही दर्शन कर सकते थे। बताते हैं कि देव आदेश के बाद ही तमाम फैसले लिए जाते हैं। इसमें भी देवता की सहमति ली गई।