बिलासपुर, 19 फरवरी : हिमाचल के बिलासपुर मुख्यालय में अगर मांगों को लेकर कोई धरना-प्रदर्शन करना हो या फिर विरोध जताना हो तो सबसे पहले चंपा पार्क का नाम ही जहन में आता है। यह पार्क विरोध व हड़ताल के लिए ऐसे ही विख्यात नहीं हुआ। बल्कि इसका इतिहास महिला जेबीटी के प्राणों की आहुति से जुड़ा हुआ है।
शिक्षिका ने आंदोलन के दौरान दम तोड़ दिया था। शायद ही कोई ऐसा बच्चा या युवा होगा जो इस पार्क को न जानता हो, लेकिन युवा पीढ़ी शायद इस बात से अनजान हो कि आखिर इसे “चंपा पार्क” ही क्यों पुकारा जाता है।
ये सही है कि इतिहास को भुलाया जरूर जा सकता है, लेकिन बदला नहीं जा सकता। बात 70 के दशक की है, जब बिलासपुर जिला के प्रशिक्षित अध्यापक मांगों को लेकर खाली स्थान पर बैठ कर प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन सरकार और प्रशासन मांगों को लेकर गंभीरता नहीं दिखा रहा था। परिणामस्वरूप हड़ताल दिन- प्रतिदिन आगे बढ़ती रही। हड़ताल में सदर विधानसभा क्षेत्र के तहत पंजगाई की चंपा भी शामिल थी।
अध्यापिका ने पीइटी की हुई थी वह अपनी मांगों के प्रति दृढ़ संकल्प थी कि जब तक मांगों को नहीं माना जाता है तब तक वह हड़ताल से नहीं हटेगी और अन्न का एक भी दाना ग्रहण नहीं करेगी। परिणाम स्वरूप उसकी तबीयत बिगड़ती चली गई। बताते है कि प्रशासन ने उसे तरल पदार्थ के रूप में देने की कोशिश की, लेकिन वो मंसूबों में कामयाब नहीं हो सके। 15 दिन के बाद शिक्षिका ने प्राण त्याग दिए। इसके बाद सरकार को हड़तालियों की मांग माननी पड़ी और उसके बाद प्रशासन ने उसकी याद में उसी स्थान पर पार्क का निर्माण करवाया और इसका नाम उसी अध्यापिका के नाम पर “चंपा पार्क” रखा गया।
मौजूदा समय में भी सरकार के विरूद्ध प्रदर्शन करने के लिए इसी पार्क का इस्तेमाल होता है। यह सड़क के साथ सटा हुआ है। भले ही चंपा का देहांत हो गया हो, लेकिन ये पार्क आज भी उस हड़ताल की याद को ताजा कर देता है,जिसमे शिक्षिका ने प्राणों की आहुति दी थी।