नाहन, 16 अगस्त: मौजूदा समय में युवा पीढ़ी गांवों को छोड़कर शहरों के रंग में रंग रही है। साथ ही सरकारी नौकरी (Govt Job) का चाव युवाओं पर सिर चढ़कर बोलता है, लेकिन तीन भाईयों की तिकड़ी एक ऐसी मिसाल बनी है, जिससे निश्चित तौर पर युवाओं को प्रेरणा लेनी चाहिए। शहरों में उच्चशिक्षा (Higher education) प्राप्त करने के बाद अच्छी-खासी नौकरी कर रहे भाईयों के लिए अपने पैतृक गांव में खेती व बागवानी को अपनाना, वास्तव में प्रशंसनीय है।
जलाल नदी के किनारे बसे सैनधार में कुदरत ने सिंचाई के लिए पानी की माकूल सौगात बख्शी है। यही कारण है कि अगर शिक्षित युवा (educated youth) यहां प्रयास करें तो अपनी आमदनी को तो छोड़ों, बल्कि रोजगार (Employment)के संसाधन तक सृजित हो सकते हैं। पराड़ा गांव के रहने वाले तीनों भाई दिन-रात मेहनत में जुटे हुए हैं। निश्चित तौर पर वो दिन दूर नहीं, जब वो एक लघु उद्योग की तरह अपना टर्नओवर कर लेंगे।
सोशलॉजी (sociology) में स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने के बाद 35 वर्षीय अर्जुन अत्री ने फार्मेसी के छात्रों को पढ़ाने के लिए भी शिक्षा ग्रहण की। 8 साल तक पांवटा साहिब के एक निजी शिक्षण संस्थान (private educational institution) के साथ जुड़कर फार्मेसी टयूटर (pharmacy tutor) भी रहे। वेतन का सालाना पैकेज लाखों रुपए मिलता था, मगर 2009 में मात्र 26 साल की उम्र में निजी व सरकारी क्षेत्र (Government sector) का मोह छोड़कर घर लौटने का फैसला किया। 10 साल तक कृषि व बागवानी में अर्जुन अत्री ने कई अनुकर्णीय उपलब्धियां हासिल कर ली।
2009 में सॉफ्टवेयर इंजीनियर (software engineer) भाई प्रमोद व सिविल इंजीनियरिंग (Civil Engineering) में पॉल टैक्नीक (Paul Technics) से डिप्लोमा कर चुके मनमोहन ने भी गांव आकर खेती-बाड़ी करने की इच्छा जाहिर की। फौरन ही अर्जुन ने हामी भर दी। दो साल पहले तीनों भाईयों की तिकड़ी ने बागवानी की तरफ कदम बढ़ाए। कम ऊंचाई की वैरायट (Variety) के करीब 700 पौधे लगा चुके हैं। इसके अलावा पलम, अखरोट व कीवी के बगीचे भी तैयार करने में लगे हुए हैं।
बता दें कि सिरमौर के मुख्यालय से ये गांव मात्र 40 किलोमीटर दूर है। एमबीएम न्यूज नेटवर्क से बातचीत में अर्जुन अत्री ने कहा कि उन्हें 12 साल हो गए हैं, जबकि दोनों छोटे भाई निजी क्षेत्र (Private sector) की नौकरियों को छोड़कर दो साल पहले ही घर लौटे हैं। मौजूदा समय में उपलब्ध आधुनिक तकनीक (Modern technology) का खुद तो इस्तेमाल करते ही हैं, साथ ही आसपास के लोगों को जागरूक करने में भी पीछे नहीं रहते हैं।
एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि इलाके में इस समय चार हजार से अधिक सेब के पौधे (plants) लगाए जा चुके हैं। टर्नओवर (turnover ) के सवाल पर अर्जुन ने कहा कि इतना टर्नओवर पहुंच चुका है, जितना तीनों भाई मिलकर साल में कमाया करते थे। मगर वो दिन दूर नहीं, जब मेहनत की बदौलत सपने साकार हो जाएंगे।
इस समय भाईयों की तिकड़ी एक हैक्टेयर में बागवानी कर रही है, जबकि धीरे-धीरे परिवार की पुश्तैनी जमीन (ancestral land) को भी विकसित करने में लगे हैं। उन्होंने बताया कि सेब के सैंपल इस साल पहली बार आए। बाजार में इसे नहीं बेचा गया, अलबत्ता इतना जरूर है कि इसकी कीमत 180 रुपए प्रतिकिलो मिल रही थी। कुल मिलाकर चंद साल में भाईयों की तिकड़ी एक ऐसी इबारत लिखेगी, जो ऐसे युवाओं के लिए प्रेरणा बनेगी, जो अपने घर की खेतीबाड़ी या बागवानी को छोडकर शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं।