हमीरपुर : अब हमीरपुर के साथ-साथ प्रदेश के सभी जिलों में फिर वहीं हरे रंग के डूने नजर आएंगे। सिंगल यूज प्लास्टिक के बैन होने के बाद फिर से हरी पत्तलो की मांग बढ़ गई है। लेकिन इस बार यह पत्तल मशीनों से भी तैयार हो पाएंगी। इसमें हिमाचल सरकार पत्तल बनाने वाले लोगों की मदद करेगी। सरकार पत्तल व्यवसाय से जुड़े लोगों को पत्तलों को बनाने वाली मशीन उपलब्ध करवाएगी।
यहां बता दे कि हिमाचल में पत्तल- डूना मेकिंग में सबसे बेहतर काम सिरमौर जिला में हो रहा है। ग्रीन टेक्नोलॉजी के तहत पत्तल- डूना बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाले टौर के पेड़ को बढ़ाने पर भी जोर दिया जाएगा। सिंगल यूज प्लास्टिक से बने उत्पादों को सरकार ने बेशक प्रतिबंधित कर दिया है, जिसमें प्लास्टिक की कप, प्लेटों सहित सभी तरह के सिंगल यूज उत्पाद अब हिमाचल में नहीं बिकेंगें। हालांकि इनके विकल्प के तौर पर सरकार ने देसी पत्तल और डूना को प्रमोट करने का फैसला किया है।
शादियों में यूज होते हैं पत्तल
हिमाचल में शादी सहित दूसरे आयोजनों की शान पत्तल- डूना अब फिर से अपनी जगह बनाने जा रही है। दरअसल, सरकार ने प्लास्टिक और थर्मोकोल से बने कप, प्लेटों पर प्रतिबंध लगाया है। अब इनके विकल्प के रूप में सरकार ग्रीन टेक्नोलॉजी अपनाने जा रही है। ग्रीन टेक्नोलॉजी की पॉलिसी तैयार हो चुकी है, जिसे जल्दी ही हिमाचल में लागू किया जा रहा है। इसमें सरकार पहाड़ी पत्तल और डोना को प्रमोट करेगी और प्लास्टिक प्लेटों की जगह पत्तल लेगी, जो हिमाचल में एक खास तरह के पेड़ टौर के पत्तों से बनती है।यह जहां पर्यावरण मित्र है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका का जरिया भी बन रही है।
पढिए, कैसे पत्तलों ने हिमाचल में तोड़ी सामाजिक बेडियां..
धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास को समेटे हिमाचल के कई इलाकों में पत्तों से बनी पत्तल में खाना परोसने की परंपरा अब भी जारी है। सामाजिक बेडिय़ां तोड़कर एक पांत (पंक्ति) में बैठकर पत्तल में खाना परोसने से समानता भी सांस लेती है। टौर से बनने वाली इस पत्तल में सामाजिक समरसता के साथ-साथ पर्यावरण को ठौर भी मिलता है। खाने के बाद इसे एक जगह फेंकने से खाद बन जाती है जबकि वर्तमान में प्लास्टिक से बने ढोने व पत्तल पर्यावरण के लिए घातक साबित हो रहे हैं। विवाह-शादियों व खास समारोहों में हजारों लोगों को पत्तल पर ही खाना परोसा जाता है। पत्तल पहाड़ की ऐसी थाली है, इसमें खाना खाने का मजा ही कुछ और है। जगंल में टौर नामक बेल में लगे पत्तों की यह पत्तल पर्यावरण मित्र भी है। पत्तल के बिना मंडयाली धाम का स्वाद तो फीका रह जाता है।
हमीरपुर में काफ़ी तादाद में पाया जाता है टौर
पहाड़ की यह पत्तल (थाली) टौर नामक बेल के पत्ते से बनती है। यह बेल मध्यम ऊंचाई वाले मंडी, कांगड़ा व हमीरपुर जिले में ही पाई जाती है। मंडी जिला की घ्राण पंचायत व सलापड़ में लोग पत्तलों का कारोबार सबसे अधिक करते हैं। हालाकि, जिला के अधिकाश गांवो में एक दो परिवार इस पेशे जुड़े हैं। जो विवाह शादियों में पत्तलों की आपूर्ति करते हैं, उन्हें स्थानीय बोली में ‘दशालिये’ कहा जाता है। ये लोग घास व बास के तिनकों से पत्तों को जोड़कर पत्तल का रूप देते हैं।
द्रंग हलके की घ्राण पंचायत के छह गांवों के 100 से अधिक परिवारों की रोजी रोटी का जरिया पत्तलें ही हैं। ये लोग सुबह जंगल की ओर निकल जाते हैं और टौर के झुरमुट से पत्तों समेत छोटी-छोटी टहनियों को निकाल लेते हैं। इसका बोझ पीठ पर उठाकर तीन से पांच किलोमीटर की दूरी तय करके घर लाया जाता है। फिर पत्तों को अलग करके घास की तीली से उन्हें जोड़ा जाता है। एक पत्तल के लिए पांच से सात पत्तों को जोड़ा जाता है। इन पत्तलों के बीस और पच्चीस की तहें बनाई जाती है।
इन्हें स्थानीय बोली में बीड़ी कहा जाता है। पत्तलें तैयार होने के बाद व्यापारी घर से ही 50 से 100 रुपये सैकड़े के हिसाब से पत्तलें खरीद लेते हैं। ये पत्तलें मंडी शहर के गांधी चौक के सामने पीपल के थड़े के नीचे पहुंचती हैं। वहां व इनके ही लोग बिक्री शुरू कर देते हैं। यहा कीमत में भी तीन गुना उछाल आता है। एक अनुमान के अनुसार पत्तलों का यह कारोबार दो से तीन करोड़ रुपये सालाना तक पहुंच जाता है।