आभार
मैं नहीं जानता
कब मेरा बच्चा गिरा छत से
कब कौन आया, अध पहने, अध उतरे, कपड़ों में भागता
किसने अपनी गोदी पसार दी उसके लिए
किसने छींटे मारे उसके चेहरे पर
और किसने झकझोर-झकझोर का बचाया उसे
अवचेतन में चले जाने से
कौन कैसे ले गया उसे अस्पताल
किसने खून दिया उसे अपना
मैं नहीं जानता
मैं जानता हूं
उम्मीद की पतली डोर थामे देर बाद
जब मैं पहुंचा था अस्पताल
वह खतरे से बाहर आ चुका था
यूं मेरे पड़ोस ने
मेरे होने के सभी ठिकाने ढूंढे थे
पर उन्हें क्या मालूम
मैंने अपने ही भीतर
एक मचान बना रखा है
सार्वजनिक खलल के कतई बाहर
वहां मेेरी इंद्रियां आपस में ही
खेल के नाम पर जुआ खेलती हैं
मैंने सोचा था
मैं सबको अच्छे से उपकृत करूंगा
बहुत कुछ था मेरे पास
पर मैं उन्हें बाद में ढूंढता रहा
जैसे वे मुझे ढूंढते रहे थे, पहले।
कवि – हरीश चन्द्र पाण्डे