नितिश कुमार/शिलाई
उत्तराखंड के जौनसार बाबर से सटे सिरमौर जिले का गिरीपार (ट्रांसगिरी) क्षेत्र अपनी अनूठी परंपराओं के लिए जाना जाता है। यहां के रीति-रिवाज, त्यौहार, सभ्यता व संस्कृति देश से बिलकुल अलग है। इस क्षेत्र मे मनाए जाने वाले त्यौहार अलग प्रकार के है। यहां की बुढी दीवाली, माघी त्यौहार (भातियोज) देश के अन्य राज्यों से मेल नहीं खाते है। इसी तरह हर त्यौहार पर पकने वाले पारंपरिक पकवान अपनी अलग पहचान रखते है।
यहां बुढी दीवाली पर बनने वाले पारंपरिक व्यंजन बहुत ही स्वादिष्ट व लजीज होते है। सुतौला उनमे से एक है। सुतौला मडवे के आटे से तैयार किया जाने वाला पारंपरिक व्यंजन है, जिसे एक विशेष प्रकार की लकड़ी से बनी देसी मशीन से तैयार किया जाता है। यह देखने में सैवियां (वर्मिसल्ली) की तरह होता है। जिसे देसी घी तथा कहीं-कहीं राजमाह के दाल के साथ खाया जाता है। मंडवा ऊंचाई वाले क्षेत्रों में उगाया जाने वाला एक प्रकार का विलुप्त होने वाला बारिक आनाज है, जो देखने मे तिल की ही तरह होता है लेकिन उसका रंग काला होता है। इसकी रोटी खाने से शूगर कंट्रोल हो जाती है, फैट की मात्रा कम होती हैं, कैल्शियम की मात्रा अधिक पाई जाती है जिससे हड्डियों की बीमारी से छुटकारा मिल जाता है।
सुतौला डायबिटीज रोगियों के लिए फायदेमंद माना जाता है, क्योंकि इसमें अधिक मात्रा में फाइबर्स व शुगर की मात्रा कम पाई जाती है। आयरन की मात्रा अधिक होने से रक्तचाप बढ़ने पर नियंत्रण करता है, माताओं के दूध में कमी को पूरा करता है, पाचन शक्ति बढ़ाने के काम आता है। इसमें फ़ाईटोएसिड पाया जाता है। त्वचा को अधिक पोषण प्रदान करती है व सर्दी, जुकाम, गले मे खराश आदि को जल्दी ठीक करने में सहायक होता है। इसकी रोटी से जल्द भूख नही लगती। मंडवे से बनने वाले सुतौला को त्यौहार जैसे बुढी दिवाली, माघी त्यौहार से एक दिन पहले बनाया जाता है।
सुतौला गिरीपार की पारंपरिक डिश मानी जाती है। पारंपरिक व्यंजन व संस्कृति को छोड़ आज का नौजवान नए-नए पकवान की तलाश में रहता है। जिससे सेहत के साथ-साथ यहाँ की संस्कृति पर भी असर पड़ने लगा है, जिसे अब सहजने की आवश्यकता है।