रेणु कश्यप/दीक्षा/नाहन
1621 में बसे शहर में पतंगबाजी विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी है। भाई-बहन के प्यार का प्रतीक रक्षा बंधन का त्यौहार महज चंद रोज दूर है, लेकिन पतंगबाजी के शौकीन अब नजर नहीं आते। अब आप सोच रहे होंगे, रक्षाबंधन का पतंगबाजी से क्या लेना-देना। चलिए बताते हैं, दरअसल समूचे उत्तर भारत में संभवत: नाहन शहर ही है, जहां रक्षाबंधन के पर्व पर आसमान रंग-बिरंगे पतंगों से सरोबार हो उठता था। नाहन में पतंगबाजी का लुत्फ उठाते बच्चे (फाइल फोटो)
इस पर्व से चंद रोज पहले पतंगबाजी का सुरूर हरेक वर्ग पर चढऩे लगता था। इस शौक को अब केवल चंद लोग ही जारी रखे हुए हैं। अन्यथा मोबाइल से बदली हो चुकी है। इतिहासकारों के मुताबिक शहर में पतंगबाजी की शुरूआत रियासत के तत्कालीन शासक शमशेर प्रकाश के शासन के दौरान हुई थी। रियासत पर शमशेर प्रकाश ने 1856 से 1898 तक शासन किया। यह भी बताते हैं कि जो भी पतंगबाजी शासक के पतंग को काटने में सफल होता था, उसे दरबार में बुलाकर सम्मानित भी किया जाता था।
पढि़ए क्यों, देश से जुदा है नाहन की पतंगबाजी..
शहर की पतंगबाजी देश के अन्य हिस्सों से कई मायनों में जुदा रही है। यहां पतंगबाजी के शौक के लिए कई दिन पहले डोर बनाने की खास विधि अपनाई जाती थी। कांच को कूट-कूट कर मांझा बनाया जाता था। बकायदा बड़े भवनों व पेड़ों के चारों तरफ डोर को लपेट कर सूता जाता था। मांझा बनाने की कला तो अब पूरी तरह से ही विलुप्त हो चुकी है। इस खास तरीके की डोर की जगह अब चाईनीज डोर ने ले ली है, जो घातक सिद्ध हो रही है।
इसके अलावा पतंगबाजों की पसंद एक स्पेशल चरखी रहती थी। इसमें दोनों तरफ बॉल बैरिंग फिट किए जाते थे। डोर को लपेटने के लिए केवल हाथ का इस्तेमाल होता था। अन्यथा बाजार में मिलने वाली चरखियों में डोर को हाथ से बेहद धीमी गति सेे लपेटा जा सकता है। बॉल बैरिंग चरख बनाने वाले भी इक्का-दुक्का ही बचे हैं। 90 के दशक तक कई मुस्लिम परिवार बेहद आकर्षक पतंगें भी यहीं तैयार किया करते थे, जो अब नहीं होती। इक्का-दुक्का दुकानों पर ही उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से पतंग व चरखियां आती हैं।
रोचक बात…
अगर आपने पतंगबाजी की है तो आप जानते हैं कि दो पतंगों की आसमान में फाइट होने की सूरत में क्या होता है। अमूमन पतंगबाज पेंच डलने पर डोर को पीछे की तरफ लपेटते हैं, लेकिन यहां की पतंगबाजी में डोर को ढील दी जाती है। विरोधी का पतंग कटने पर ‘बोलो बे छोकरो काटा हे’ दशकों पुराना जुमला है। कुल मिलाकर किसी भी कला का विलुप्त होना बेहद दर्दनाक होता है।
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