नाहन, 10 दिसंबर : पारंपरिक खानपान गुणवत्ता और स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद लाभकारी माना गया है। बात की जाए पहाड़ी व्यंजनों की तो देश ही नहीं विदेशों में भी खासी डिमांडहैं। पहाड़ीअनाज सेहत के लिए बेहद फायदेमंद हैं। पहाड़ों में व्यंजन सेहतमंद होने के साथ साथ लोक परम्पराओं को भी सहेजे हुए हैं। आम तौर पर हर क्षेत्र में खानपान, रहन सहन की विविधता देखने को मिल जाती है। परिस्थिति व जलवायु के अनुकूल खान पान बदल जाता है।
बात अगर सिरमौर के पहाड़ी क्षेत्रों की हो तो जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लोगों ने पारंपरिक रीति-रिवाज और प्रथाओं को संजोए रखा है। इनमें से एक है ‘नाल बड़ी’ लगाने की प्रथा। स्वाद के साथ एक-दूसरे से मेलमिलाप व भाईचारे का संदेश। संयुक्त रूप से बनाए जाने वाला व्यंजन खाने में तो स्वादिष्ट होता ही है। साथ ही गुणकारी भी है। नाल बड़ी लगाने का प्रचलन रियासतकाल से होता आ रहा है। अरबी के डंडी जिसे नाल भी कहा जाता है को माश की दाल से बड़ी मशक्क्त से बनाया जाता है। पुराने समय के जब मनोरंजन के साधन न के बराबर थे। उस समय लोग नाल बड़ी को संयुक्त तौर पर लगाते थे और कार्यक्रम का आयोजन होता था।
आधुनिकता की दौड़ में वर्तमान में नाल बड़ी का प्रचलन कम हुआ है। जिला में कुछ क्षेत्र ही ऐसे बचे हैं। जहां इसे मनाने और लगाने का क्रम आज भी जारी है। धारतीधार, सैनधार और पच्छाद क्षेत्र में आज भी नाल बडिय़ां लगाई जाती है। बुजुर्गों के अनुसार पुराने समय में यह कार्यक्रम बड़े धूमधाम से मनाया जाता था। आज इसकी जगह मोबाइल, टीवी और अन्य मनोरंजन के साधनों ने ले ली है। बुजूर्ग विद्या देवी, कांता देवी व लाजवंती देवी बताती है कि यह आयोजन मार्गशीर्ष की संक्रांति से शुरू होता है और पूरे महीने चलता है। पूरे गांव में हर घर में बारी-बारी से इसका आयोजन किया जाता है।
उन्होंने बताया कि पहले इस कार्यक्रम का आयोजन बहुत शानदार ढंग से होता था। पूरे गांव को आयोजन के लिए आमंत्रित किया जाता था। शाम के समय गांव की सारी महिलाएं एकत्रित होकर इन्हें लगाती थी। इस दौरान पौराणिक पारंपरिक गीत भी गाए जाते थे। उन्होंने बताया कि दावत अनुसार लोगों को उबली हुई मक्की शक़्कर के साथ, कोलथी व गेहू का मूड़ा खाने को दिया जाता था। वर्तमान में मक्की, गेहू व कोलथी का मुड़ा नहीं बनाया जाता। अब इसके स्थान पर काले चने व अन्य सामग्री लोगों में बांटी जाती है। इसके अलावा चायपान की व्यवस्था की जाती है। जिस घर में नाल बडिय़ां लगाने का कार्यक्रम होता है, नाल बडिय़ा लगाने के बाद महिलाओं द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। इसमें हमारे पारंपरिक गीत, पहाड़ी कल्चर और स्वांग आदि किए जाते हैं।
वर्तमान समय में ऐसे आयोजनों का प्रचलन बहुत कम हो गया है। पहले की तरह अब लोग इसमें इतनी दिलचस्पी भी नहीं लेते हैं। खास तौर पर मेहमान नवाजी के लिए इस व्यंजन को परोसा जाता है। बुजुर्गों के अनुसार यह एक स्वादिष्ट और गुणकारी खाद्य सामग्री है। जिसे कई महीनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। गिरिपार क्षेत्र में माघी पर्व के दौरान भी इसे खूब इस्तेमाल किया जाता है। इस माह गांव में मीट की दावत आम होती है। ऐसे में शाकाहारी मेहमानों को नाल बड़ी व्यंजन के तौर पर परोसी जाती है।
कैसे बनाई जाती है “नाल बड़ी”…
गांव में अरबी को बड़े शौक से खाया जाता है। इसे अन्य व्यंजन बनाने में भी इस्तेमाल किया जाता है। इनमें से एक है नाल बड़ी। अरबी की डंडी का इस्तेमाल किया जाता है। उड़द, चना सहित अन्य दालों को पीसा जाता है। फिर इसे आटे की तरह गूंथा जाता है। इसके बाद अरबी के डंडियों में इस गूथें हुए मिक्सचर की बारीक़ परत अरबी की डंडी पर लगाई जाती है। फिर दो डंडियों को बांधकर रस्सी पर सूखने के लिए टांग दिया जाता है। दूसरे दिन सूखने के बाद इन्हें छोटे-छोटे गोल टुकड़ों में काटकर सुखाया जाता है।
करीब एक सप्ताह तक अच्छी तरह सुखाने के बाद इन्हें सुरक्षित रख दिया जाता है। इस तरह से यह एक स्वादिष्ट खाद्य व्यंजन बनकर तैयार हो जाता है। वहीं अरबी के पत्तों से भी बहुत ही स्वादिष्ट व्यंजन जिसे पतरोड़ू, पतरेड़ व गिच्चे भी कहा जाता है, बनाए जाते हैं।