पगली
कौन थी वो,
ये उसे मालूम ना था,
कहां से आई थी,
कौन यहां लाया,
उसे मालूम ना था,
दिनभर शहर की,
गलियों में
चक्कर लगाती थी वह,
कभी-कभी थक कर,
बैठ जाती थी वह,
यहां से वहां क्या खोज रही है?
उसे मालूम न था,
चंद चीथडे़ जिस्म पर,
जिनमें कुछ अस्मत ढकी,
कुछ खुली रहती थी,
कुछ निगाहें उसके जिस्म,
को चीरती रहती थी,
सर्दी-गर्मी का अहसास,
क्या होता है?
उसे मालूम न था,
पर, एक एहसास था उसे,
श्रृंगार वो जरूर किया करती थी,
गलियों में,
चाहे उसे कीचड़ ही मिले,
वो उसे चेहरे पर मलती थी,
वो कैसी दिखती है,
उसे मालूम ना था,
पेट की भूख उसे,
किसी द्वार तक ले जाती थी,
कहीं से कोई सूखा,
टुकड़ा मिल जाता,
कहीं से दुत्कार खाकर,
मुड़ जाती थी,
उसके जिस्म से, बदबू आती है,
उसे मालूम ना था,
एक रात,
जोरों से तूफान आया,
संग अपने वह,
उसकी बर्बादी लाया,
और उसका,
जीवन ही बदल गया,
बादलों की गर्जन,
बिजली का कौंधना,
ऐसे में एक साया, कहीं से आया,
उसे अपनी हवस का शिकार बनाया,
हवस शांत होते ही,
तूफान भी थम गया,
उसका जिस्म,
बदलना क्यों शुरू हो गया,
उसे मालूम न था,
वक्त, अपनी रफ्तार से,
चलता रहा,
एक जीव उसकी,
कोख में पलता रहा,
आखिर एक दिन उसने उसे,
अपने जिस्म से,
अलग कर दिया,
दुनिया को पगली की,
सेवा का मौका मिल गया,
पगली को,
कौन पागल कर गया,
किसी ने न सोचा,
सब उसका,
वह अंश पाना चाहते थे,
उसके लिए नए-नए,
उपहार लेकर जाते थे,
अब उन्हें उसके जिस्म से,
बदबू नहीं आती थी,
मुन्ने का चेहरा चांद सा है,
सब में बतियाती थी,
लोग घेरा बनाए,
चारों और क्यों खडे़ हैं?
उसे मालूम ना था,
और आखिर वही हुआ,
एक आंचल में,
वह अंश समा गया,
जिसकी अखबार में भी,
कुछ दिन चर्चा रही,
उसके बाद पगली,
न जाने कहां चली गई,
शायद, एक तूफान और,
उसके ऊपर से,
गुजरेगा अभी,
सभ्यता की,
खिल्ली उड़ाने को,
परंतु यह गलियां,
आज भी,
उसके होने का,
अहसास कराती हैं,
उसे मालूम न था……….
-मोहम्मद कय्यूम सैय्यद की कलम से……
पुस्तक: -चांद पर अब परियां नहीं रहती