राजगढ (एमबीएम न्यूज) : फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को शिव आराधना का विशेष दिन माना गया है और यह शिवरात्रि के नाम से प्रसिद्व है । यह पर्व हमे पाप, अन्याय, अनाचार से दूर रह कर शुद्व, पवित्र व सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देता है । सिरमौर व शिमला जिले के ग्रामीण क्षेत्रों मे यह पर्व तीन दिनो तक बड़े पारंपरिक अंदाज से मनाया जाता है ।
शिवरात्री से एक दिन पहले को ददौण, शिवरात्री वाले दिन को पडेई व शिवरात्री के एक दिन बाद को बासी कहा जाता है । ददौण वाले दिन घरो की साफ सफाई व शिवरात्रि की तैयारियों के काम के बाद शाम को घरो मे पांरपरिक व्यजन सिडकू, अस्कली, लुश्के आदि बनाये जाते है । पडेई वाले दिन सुबह से ही घरो मे शिवरात्रि के व्यजनो जिसमे आटे के मीठे व नमकीन पकैन , उडद के आटे के माशडू , माल पूडे , मीठे रोट, आटे के खाडू व बकरे बनाये जाते है।
संध्या के समय पुरूषो द्वारा पाजे के पतो का चदूआ, महिलायो द्वारा शिव पार्वती की मिटटी की मूर्ति बनाई जाती है जिसका सोने चादी के आभूषणो से श्रृंगार करा कर पूजा के लिए चांदी के सिक्को पर विशेष मंडप पर सजाया जाता है और इनके उपर छत्र के स्थान पर चदुआ लगाया जाता है। पाजे के पतो व देशी घी से शिवरात्रि की पांरपरिक पूजा की जाती है और रात्रि के चोथे पहर यानि सुबह ब्रह्म मुहूर्त मे इन मूर्तियो को गांव के जल स्त्रोत के पास रख दिया जाता है और चदुआ को घर की छत मे टांग दिया जाता है जो अगली शिवरात्री तक वही पर टंगा रहता है।
विशेष बात है कि जिस घर मे किसी व्यक्ति की मौत हुई हो उस घर मे शिवरात्री नही मनाई जाती और गांव के सभी लोग शिवरात्री भोजन उस घर वालो को देते है। बासी का दिन यहां विवाहित महिलाओ के लिए विशेष होता है क्योकि इस दिन मायके से उनके लिए शिवरात्री को बनाये गये व्यंजन आते है और इसी प्रकिया को बासी देना कहा जाता है। हर महिला का पिता या भाई इस दिन अपनी बेटी या बहन के घर इन व्यजंनो को लेकर पहुचता है और इन व्यंजनो को देना आवश्यक होता। यह परंपरा सदियो से चली आ रही है। पहले तो विशेष रूप के किल्टो को पीठ मे लाद कर व्यंजनो से भर कर बहन – बेटियो के घर पहुचाया जाता है मगर अब यह पंरपरा लुप्त होने के कगार पर है । अब इन किल्टो की जगह पैसो ने ले ली है व्यंजनो के बदले पैसे ही दिये जाते है।
इसके अलावा यहां शिवरात्री के लिए विशेष पहाडी गीत गाने का भी रिवाज है इसे आंचली कहा जाता है। इसमे शिव विवाह और शिव परिवार को अपने घर बुला कर उनकी पूजा व स्वागत का वर्णन पहाडी भाषा मे किया जाता है । मगर अब यह परंपरा भी लुप्त होने के कगार पर है क्योंकि अब आचली गाने वाले ही कम हो गए है। कुछ भी हो आधुनिकता की इस दौड मे यहां आज भी शिवरात्री का पर्व पारंपरिक रुप से ही तीनो दिन मनाया जाता है।