शिमला, 23 मार्च : भारतीय पुरातन पद्धति के अनुसार नववर्ष अर्थात विक्रम संवत का आगमन चैत्र मास से माना जाता है। इस विक्रम संवत के प्रथम चैत्र मास का नाम गंधर्व समुदाय अथवा ढोलरू के मुखारविंद से विशेषकर शिमला और सिरमौर जिला के लोग सुनना शुभ मानते हैं। यह परंपरा बदलते परिवेश में भी विद्यमान है। गिरि गंगा वैली जिसमें सिरमौर व शिमला जिला का काफी क्षेत्र आता है। परंपरा के अनुसार गंधर्व समुदाय के लोग आदिकाल से निभाते आ रहे है। जबकि त्रिगर्त क्षेत्र में डोलरू नामक जाति के लोग घर-घर जाकर नव वर्ष चैत्र माह का नाम गीत के माध्यम से सुनाते है। लोग खुशी-खुशी इन्हें दान के रूप में आटा, चावल, घी और सुहागियां इत्यादि भेंट करते हैं। कई लोग अपनी श्रद्धानुसार दान के साथ भोजन करवाकर उनका आशीर्वाद लेकर विदा किया जाता है।
हिमाचल के जाने माने साहित्यकार एवं पद्मश्री विद्यानंद सरैक ने विशेष बातचीत में बताया कि चैत्र मास का धार्मिक ग्रंथों में विशेष महत्व है। चित्रा नक्षत्र के नाम पर चैत्रमास का नाम दिया गया हैं। चैत्र मास में पड़ने वाले नवरात्रों का विशेष महत्व है। नवरात्रे की प्रतिपदा को विक्रमी संवत का आरंभ होता है। इसी दिन युधिष्ठिर का राज्याभिषेक और सिखों के दूसरे गुरु अंगद देव का जन्म हुआ था। शास्त्रोक्त मान्यता के अनुसार चैत्र प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की थी। विद्यानंद सरैक का कहना है कि चैत्र की मास की संक्राति जिसे बीशूड़ी कहा जाता है, इस दिन से हिंदू धर्म में नववर्ष का आगाज होता है।
गंधर्व समुदाय के लोग प्रातःकालीन बेला में स्थानीय मंदिर में जाकर बेउल बजाकर देवता को नववर्ष की बधाई देते है। उसके उपरांत इस वर्ग के लोग अपने क्षेत्राधिकार में घर-घर जाकर लोगों को चैत्र मास का नाम विशेष गीत के माध्यम से सुनाते है और यह प्रक्रिया पूरे माह बैसाखी अर्थात बीशू की संक्रांति तक चलती है। उन्होने बताया कि गंधर्व अर्थात मंगलामुखी जाति वर्ग के लोगों के मुखारविंद से लोग चैत्र मास का नाम सुनना शुभ संकेत मानते है, परंतु समय के साथ-साथ यह परंपरा लुप्त हो रही है। अब बहुत कम स्थानों पर इस समुदाय के लोग इस परंपरा को निभा रहे हैं। उनके द्वारा चैत्र मास के गीत की कुछ पंक्तियों का उल्लेख इस प्रकार किया गया।
साबो सुल्तान-साबो सुल्तान-सब जग पूरे परवान
रागी राग गावै, राजा राज चलावै, पंडित पढ़े परवान
राजा जगदेव सभी रा सोरा-काली ब्राहम्णी शिर कतरके राखा दोरा
15 हजार क्योंथल में, 16 हजार बघाट, और शाया सिरमौर
पांच पांडव रा नांव-रामे के दिता ठांव-चैत्र महीने रा नांव,
तुम्हारे आंगने मांगता आया-सुखी राखो तुमरो परिवार,
देवी-देवी रे शिर नवाया,-चैत्र महीने रा नांव गिरबनवाज महाराज।
पद्मश्री का कहना है कि संस्कृति ही समाज का वास्तविक आइना है। लोक परंपराएं, मेले एवं त्यौहार हमारी समृद्ध संस्कृति का बोध करवाते हैं, जबकि समय के साथ-साथ विभिन्न प्राचीन परंपराएं धीरे-धीरे विलुप्त होने लगी हैं। युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति से विमुख होकर उनका रूझान पाश्चातय सभ्यता और भौतिकवाद की ओर बढ़ रहा है जोकि एक स्वस्थ समाज की परंपरा के लिए शुभ संकेत नहीं है। युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जोडने के लिए अपनी पौराणिक परंपराएं को संजोए रखना परमावश्यक है।