शिमला, 14 दिसंबर : हिमाचल का एक बेटा 19 साल की उम्र में भारतीय सेना (Indian Army) में सिपाही बनता है। उसे ठीक से अंग्रेजी बोलनी नहीं आती है। मगर उसे ये नहीं पता था कि सेना में अफसर की भी सीधी नियुक्ति होती है। पता चला कि अफसर बन सकता है तो सिपाही के पद पर कर्तव्यनिष्ठा से अपना दायित्व निभाते हुए आज लेफ्टिनेंट बनकर मंजीत ने अपने सपने को साकार कर लिया है। यह अलग बात है कि इस सपने को साकार करने में 10 साल का वक्त लगा। इस दौरान एक वक्त ऐसा भी था, जब लेफ्टिनेंट मंजीत को स्लीपिंग बैग में पढ़ाई करनी पड़ती थी, ताकि उसके साथ डयूटी करके लौटे जवानों की नींद में खलल न पड़े।
भारतीय सेना अकादमी की शनिवार को पासिंग आउट परेड में लेफ्टिनेंट मंजीत सिंह जम्वाल की आंखों में कामयाबी की दोहरी चमक थी। पहली तो ये कि सैन्य अधिकारी बन गया है। दूसरी ये कि सर्वश्रेष्ठ घुड़सवार की ट्राॅफी भी हासिल हुई।
ऐसे किया संघर्ष…
2010 में सिपाही भर्ती होने के बाद मंजीत ने 2012 में पहला प्रयास किया। लिखित परीक्षा में सफलता तो मिली, लेकिन स्क्रीन आउट कर दिया गया। 2014 में दूसरी कोशिश में एसएसबी में कांफ्रेंस आउट होना पड़ा। लेकिन 2016 में मेहनत ने रंग दिखाया। एसएसबी में सफलता हासिल हो चुकी थी। इसके बाद तीन साल के लिए आईएमए परिसर में ही आर्मी कैडेट काॅलेज में दाखिला हासिल हुआ। तीन साल बाद एनडीए व एसीसी के प्रशिक्षुओं की ट्रेनिंग एक तरीके से शुरू होती है। बिलासपुर के घुमारवीं उपमंडल के समलोहल गांव में कुशल सिंह व विमला देवी के घर जन्में लेफ्टिनेंट मंजीत की प्रारंभिक पढ़ाई गांव के स्कूल में ही हुई। यहीं से मंजीत ने सफलता की तरफ कदम बढ़ाए।
ये है जीवन से जुड़ी खास बातें…
लेफ्टिनेंट मंजीत एक सिपाही होने के दौरान भी सामान्य नहीं रहा। बाॅक्सिंग में भारतीय टीम में भी जगह बनाने में सफलता अर्जित की। इसके बाद घुड़सवारी के अलावा पोलो का भी महारथी है। घुड़सवारी के दौरान दो बार बुरी तरह जख्मी हुआ। एक मर्तबा बाजू टूटी तो दूसरी घटना में टांग भी फ्रैक्चर हुआ। लेकिन अपने जुनून पर इन घटनाओं को हावी नहीं होने दिया। घुड़सवारी व पोलो में सेना की मेरठ व जयपुर में आयोजित प्रतियोगिताओं में तीन स्वर्ण, दो रजत व दो कांस्य पदक भी एसीसी के लिए हासिल किए।
अब ये है जिद…
एमबीएम न्यूज नेटवर्क से बातचीत में लेफ्टिनेंट मंजीत ने कहा कि सैन्य अधिकारी बनकर अपना एक सपना पूरा किया है। अब अगला सपना विश्व की तमाम ऊंची चोटियों पर चढ़ाई करने का है। इसके लिए वो सालों से मानसिक तौर पर तैयार हैं। उनका कहना था कि कई मर्तबा वो 7-7 दिन तक जंगलों से भी नहीं लौटे। स्लीपिंग बैग में पढ़ाई सामान्य बात थी। उनका कहना था कि हालांकि पिता भी हवलदार के पद से रिटायर हुए, लेकिन उनसे भी कभी इस बात की चर्चा नहीं हुई कि वो सिपाही भर्ती होने की बजाय सीधे अधिकारी भी बन सकते हैं। उन्होंने बताया कि चंडी मंदिर के वैस्टर्न कमांड में तैनाती मिली है। इससे पहले वो सिपाही के तौर पर पंजाब रेजीमेंट का हिस्सा थे।
कुल मिलाकर लेफ्टिनेंट मंजीत की सफलता की दास्तां हरेक मायने में अलग है। गांव के बेहद ही सामान्य परिवेश में जन्मा बेटा इस समय सैन्य अधिकारी तो है ही, साथ ही पोलो जैसे एक ऐसे खेल में भी महारथ हासिल की है, जो भारत में पूंजीपतियों का शौक माना जाता है। ऐसे ही घुड़सवारी भी है, जो सामान्य लोग नहीं कर पाते हैं।