दलाश (कुल्लू)
सतलुज घाटी से लगने वाले क्षेत्रों में छिकचिडू ,मियांरंझा तथा बारहघेडू आदि दंत कथाएं सुनने को नहीं मिलती है। किसी किसी समय इनका खूब प्रचलन था। कई सालों से ये परंपरागत लोककथाएँ व दंतकपाएँ सुनने को नहीं मिली है।
ये कथाएं लोगों में आपसी मेल जोल और प्रेम भाईचारा बढ़ाने की शिक्षा देते हैं। इन कथाओं में ढेर सा ज्ञान तथा भारी मनोरंजन भी हैं। बच्चे तो सुनने के लिए काफी उत्साहित होते थे, परंतु अब इन चीजों का अभाव होता जा रहा है।
ताज्जुब की बात है कि इन कथाओं के लिए लोग समय नहीं निकाल पाते हैं। लोग इतने भौतिकवादी हो चुके हैं कि उनका रुझान अब फिल्म, टीवी व पाश्चात्य संस्कृति की ओर बढ़ रहा है।
क्षेत्र में लोककथाओं का समय अक्सर सर्दी के मौसम में हुआ करता था। यहाँ के बुजुर्ग, दादा,दादी,नाना,नानी काफी दिलचस्पी रखते थे, बच्चे शौक से सुनते थे परंतु अब बच्चों के लिए यह सब सुनने को नहीं मिलता। इनसे बच्चों को मनोरंजन तो मिलता था साथ में उनके ज्ञान में वृद्धि होती है।
सतलुज घाटी के इर्दगिर्द अधिकतर गांवों में पहले पहले प्रचुर मात्रा में लोक कथाएं सुनने को मिलती थी तथा इनका यहाँ के समाज में खूब प्रचलन था। लुप्त होती जा रही संस्कृति के प्रति आज की नई पीढ़ी तनिक भी चिंतित नहीं है।
इस क्षेत्र के गांव रिवाड़ी के लोककथा के पुरोधा पंडित मस्तराम शर्मा है, जिनके घर में अधिकतर लोग कथा सुनने आते रहते हैं। ऐसा शायद ही कोई दिन नहीं होगा जब कथा प्रवचन ना हो।
उमाशंकर दीक्षित