घुमारवीं : भारत वर्ष में दीपावली एक विशेष पर्व है, जिसका अपना ही एक अलग महत्व है। हिमाचल प्रदेश में दीपावली का त्यौहार देखते ही बनता है। प्रदेश में आज भी दीपावली को परंपरागत व पुरानी प्रथा के अनुसार ही मनाई जाती है। मगर आधुनिक समय में कंप्यूटर, मोबाइल, टीवी की चकाचौंध के कारण यहां भी इसके रंग फीके पडऩे लगे हैं। ग्रामीण इलाकों में दीपावली का बेसब्री से इंतजार रहता है, क्योंकि पट्टाखों का शौक सर चढ़कर बोलता है।
आपको बताते चलें कि कुछ समय पहले आधुनिक समय की सुख-सुविधा नहीं थी। उन दिनों बच्चों में दीपावली का एक खास उत्साह रहता था। दिपावली से 8 दिन पहले ही गांव के सारे बच्चे खुले खलिहानों में शाम होते ही घेरसू जलाते थे। जिसमें घास के पुले या मक्की की फसल से बचे तनो के गठ्ठे व चीड के पेड़ों से निकलने वाली चलाखडियों में रस्सी बांधते थे। फिर बच्चे उसमें आग लगाकर इसे अपने चारों ओर घुमाते रहते थे। यह क्रम 8 दिनों तक चलता था। जिसमें पट्टाखे, फुलझड़ी डाली जाती थी।
मगर समय की चकाचौंध के कारण घेरसू जलाने की यह कला खत्म ही हो गई है। दीपावली का पर्व कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। हिमाचल के कई जिलों में लोग इसे अपने-अपने तरीके से मनाते हैं। बिलासपुर, हमीरपुर, ऊना, सोलन व मंडी के लोग चावल के आटे की एंकली बनाते हैं जो डोसा की तरह बिल्कुल सफेद होती है। इतना ही नहीं इसी आटे से एकलू भी बनाए जाते हैं, जिसको एक पत्थर के बड़े आकार के तवा पर बनाया जाता है। यह पकवान महीने तक खराब नहीं होता। इन पकवानो को दूध, देसी घी और मास की दाल के साथ खाया जाता है। दीपावली पर महमानों का आदर सतकार करने का यह सबसे उत्तम तरीका है। लेकिन समय के साथ यह भी खत्म होने की कगार पर है क्योंकि इन पकवानो की जगह मिठाइयां ले रही हैं।
ग्रामीण इलाकों में आज भी दीपावली पर मुख्य पकवान यही है। हिमाचल प्रदेश में कुल्लू जिला में बूढी दीवाली इसके एक महीने बाद मनाई जाती है, जिसमें लोग तीन दिनों तक इस पर्व को मनाने हैं। हिमाचल की दीपावली अक्सर शांत रहती है। आधुनिक समय में पट्टाखों पर अधिकतर खर्च के कारण यह शांत प्रदेश भी पट्टाखों के प्रदूषण से घुमिल हो जाता है। सही बात तो यह है कि हम अपनी परंपरागत रीति रिवाज भूल कर आधुनिक चकाचौंध को अपनाने लगे हैं।