बिलासपुर (अभिषेक मिश्रा) : यह सुखद आर्श्चय का विषय है कि एक ओर जहां किसान बागवान बेसहारा पशुओं और जंगली जानवरों के उत्पात के कारण अपने परम्परागत कृषि और बागवानी के व्यवसाय को घाटे और नुक्सान का व्यवसाय मानकर इससे विमुख हो रहे है, वहीं कुछ किसान और बागवान मुश्क्लि की इस घड़ी में समय की नजाकत को भांपते हुए बिना जोखिम वाले नकदी फसलों के व्यवसाय की ओर पग बढ़ा रहे है, जहां न वह केवल लाखों रूपयों का आर्थिक लाभ ही कमा रहे है, अपितु अन्य लोगों में प्रेरणा का स्त्रोत भी बने हुए हैं।
ऐसे ही एक कृषक है, जिला बिलासपुर की ग्राम पंचायत डोबा के गांव करोट के श्याम लाल ठाकुर। वर्षो से मक्की, गन्दम, गन्ने, अदरक इत्यादि की परम्परागत खेती करते हुए श्याम लाल के परिवार की आर्थिक स्थिति अत्यन्त कमजोर थी। उस पर बन्दरों व अन्य जानवरों का कहर प्रतिदिन इनकी परेशानी का सबव बनता जा रहा था। ऐसे में जब इन्हे कृषि विभाग के अधिकारियों ने जिमीकन्द की खेती करने का परामर्श दिया तो उन्हें कुछ आस बन्धती प्रतीत हुई। उन्होंने वर्ष 1998 में मात्र एक बीघा भूमि में जिमीकन्द का बीज बोया। सार्थक परिणाम आने के फलस्वरूप, उनके उत्साह में बढ़ौतरी हुई और उन्होंने आत्मा परियोजना व कृषि विभाग के मार्गदर्शन से वर्ष 2003 तक 7 बीघें भूमि पर जिमीकन्द की खेती का विस्तार कर दिया।
वर्ष 2003 में कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर द्वारा उत्तम जिमीकन्द पैदावार के लिए इन्हें ‘‘अवार्ड’’ प्रदान करके सम्मानित किया गया। श्याम लाल ठाकुर का चार भाईयों का सयुंक्त परिवार है। परिवार की सभी महिलाएं, पुरूष व बच्चे सामुहिक रूप से 12 बीघा से भी अधिक भूमि पर जिमीकन्द की पैदावार करके लाखो रूपयों की वार्षिक आय अर्जित कर रहे है, इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष लाखों रूपयों का जिमीकन्द का बीज विभाग, स्थानीय कृषकों के अतिरिक्त ऊना, सोलन तथा कांगड़ा जिला के कृषकों को बेचा जा रहा है।
ठाकुर परिवार के जिमीकन्द के फायदेमन्द व्यवसाय से प्रेरित होकर आज डोबा पंचायत के 80 प्रतिशत परिवार जिमीकन्द की पैदावार करके अच्छा खासा मुनाफा कमा रहे है। एक अनुमान के अनुसार केवल बिलासपुर की ‘‘जुखाला बैल्ट’’ में ही 2 करोड़ रू. से भी अधिक की जिमीकन्द की वार्षिक पैदावार होती है। गुणवत्ता और मांग का यह आलम है कि कृषकों को उसको बेचने के लिए मण्डियों के चक्कर नहीं काटने पड़ते, बल्कि फसल तैयार होते ही व्यापारी स्वयं उनके खेतों से जीमीकन्द को उठवा लेते है। श्याम लाल ठाकुर का कहना है कि एक बीघे की जमीन में जिमीकन्द की खेती करने से लगभग चालिस से पच्चास क्विंटल जिमीकन्द की पैदावार हो जाती है ।
अब ठाकुर भाईयों के जीवन स्तर में अत्याधिक बदलाव आया है, उनके अपने पक्के मकान है। बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण करके नौकरियां भी कर रहे है।
क्या कहते है आत्मा परियोजना के निदेशकः-
जिला निदेशक आत्मा परियोजना डा0 आन्नद पराशर कृषकों को परामर्श देते हुए कहते है कि ‘‘कृषकों को फसलों के महत्व व मार्किट वॅल्यू’’ के हिसाब से उनका निर्धारण करना चाहिए। जिसमें जोखिम कम हो और आय अधिक हो। इस सन्दर्भ में जिमीकन्द बहुत ही फायदे का व्यवसाय है इसमें परिश्रम कम है और लाभ अधिक है। उन्होंने बताया कि विभाग द्वारा समय-समय पर खेतों में जॉच करके कृषकों को आवश्यक दिशा निर्देश व परामर्श दिए जाते है तथा दवाईयां इत्यादि उपलब्ध करवाई जाती है। विभाग द्वारा प्रदर्शनी प्लाट भी तैयार किया गया है।
डा0.बीडी जस्वाल, उपनिदेशक आत्मा परियोजना ने जानकारी देते हुए बताया है कि जिमीकन्द उगाने के लिए दोमट भूमि की आवश्यकता रहती है इसे बरसात मे उगाया जाता है इसलिए सिंचाई के लिए पानी की आवश्यकता भी नहीं रहती है। मिट्टी को भूरभरा बनाये रखने के लिए वर्मी कल्चर खाद का प्रयोग किया जा सकता है। अगर मिट्टी में ‘‘कले कन्टेट’’ की अधिकता है तो ग्रीन मन्योरिंग भी रूटेशन में करनी चाहिए ताकि अच्छी ग्रोथ के चलते पैदावार अधिक हो। जिमीकन्द हर जगह उगाया जा सकता है लेकिन भूमि छायादार व पत्थरीली नहीं होनी चाहिए और न ही बरसात का पानी खेतों में टिकना चाहिए।
औषधिय गुणः- जिमीकन्द के अचार और सब्जी के सेवन से गठिया और केंसर जैसे रोगों से निजात मिलती है।
उगाने की विधिः-
जिमीकन्द मई माह के अन्त या जून के आरम्भ में उगाया जाता है उसकी पैदावार तीन वर्ष उपरान्त तैयार होती है। प्रथम वर्ष में बड़े जिमीकन्द से 10 से 50 ग्राम उभरे ढेलों को अलग करके बीज के रूप में बोया जाता है। दूसरे वर्ष ये ढेले 250 से 300 ग्राम के भार के हो जाते है और इनके किनारों पर भी छोटे ढेले उभर आते है जिन्हे अलग करके उन्हें पुनः जमीन में रोपा जाता है और तीसरे वर्ष यह ढेला 3 से 4 किलोग्राम के बड़े जिमीकन्द के रूप में विकसित हो जाता है। विकसित जिमीकन्द के किनारों पर उभरे छोटे-छोटे ढेलों को अलग कर जिमीकन्द के बीज के रूप में प्रयोग किया जाता है।