एमबीएम न्यूज/शिमला
हिमाचल इस बात से बखूबी वाकिफ है कि प्रदेश के तीन जांबाज बेटों ने 29,029 फीट ऊंचाई नापकर माउंट एवरेस्ट पर फतह पाई है। हर कदम पर मौत को जिद की बदौलत ही पार किया जा सकता था। देवभूमि के इतिहास में यह पहली मर्तबा ही हुआ होगा, जब तीन बेटों ने एक ही टीम में माउंट एवरेस्ट को फतह किया होगा। एवरेस्ट को फतह करने को लेकर चौंकाने वाले खुलासे भी हुए हैं। हिलेरी स्टेप पर जाम लगने के दौरान अगर पांव फिसला तो एक तरफ चीन की सीमा में गिरते हैं तो दूसरी तरफ नेपाल की।
एनएसजी की टीम में शामिल रहे असीस्टेंट कमांडेंट महेंद्र का संबंध लाहौल-स्पीति से है। जबकि कमांडो अनूप सिंह चंदेल मूलतः बिलासपुर के रहने वाले हैं। इसके अलावा असीस्टेंट कमांडर-II विवेक ठाकुर का ताल्लुक सिरमौर के ददाहू से है। एमबीएम न्यूज नेटवर्क से बातचीत में विवेक ठाकुर ने एवरेस्ट की यात्रा को लेकर चौंकाने वाले खुलासे किए हैं। इनके मुताबिक चढ़ाई के दौरान 11 ट्रैकर्स को मरते देखा। इसमें चार भारतीय शामिल थे। 45 मिनट तक जाम में फंसे रहने पर विवेक का कहना था कि ऐसी स्थिति प्रतिकूल मौसम की वजह से पैदा हुई।
आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या है कि माउंट एवरेस्ट पर भी जाम लगता है। इस बारे सीधे विवेक ठाकुर से ही पूछा गया। उन्होंने बताया कि दरअसल हिलेरी स्टेप पर भीड़ की वजह से इस तरह की स्थिति पैदा हो जाती है। 22 मई को जब वो चढ़ाई के अंतिम दौर में थे तो 50 से 60 ट्रैकर संकीर्ण जगह पर फंसे हुए थे। इस जगह पर हिलना भी मुश्किल होता है। ऑक्सीजन खत्म होने का डर सबसे बड़ा खतरा होता है। उल्लेखनीय है कि एनएसजी के 7 जांबाजों ने 16 मई को एवरेस्ट पर फतह पाई थी, जबकि 4 ने 22 मई को तिरंगा फहरा कर भारत का नाम रोशन किया था।
उधर कमांडो महेंद्र लेगदो मीडिया से बातचीत में पहले ही कह चुके हैं कि एवरेस्ट पर लगे जाम में तीन घंटे फंसे रहना सबसे भयावक था। ऑक्सीजन खत्म होने के बावजूद हौंसले को कायम रखा। किस्मत से एक साथी ने ऑक्सीजन उपलब्ध करवा दी थी। ब्लैक कैट कमांडो विवेक का कहना है कि 2018 में माउंटनिंग का सबसे बेहतरीन समय रहा, जब 500 से अधिक लोगों ने चढ़ाई पूरी की थी। उन्होंने कहा कि माउंट एवरेस्ट पर सबसे अधिक वैदर विंडो के हाथ में आपकी किस्मत रहती है।
न नौकरी न ही आर्थिक मदद…
बेशक ही इन तीन जांबाजों के साहस को प्रदेश के मीडिया ने प्रमुखता प्रदान की। लेकिन शायद राज्य सरकार तक अब भी खबर नहीं पहुंची है। यही वजह हो सकती है कि सरकार से तीनों जांबाजों में से किसी को भी बधाई संदेश नहीं पहुंचा है। इतना भी स्पष्ट है कि तीनों ही देश के बेहतरीन कमांडोज हैं, जिनकी जांबाजी को फौज ने पलकों पर बिठाया है। सरकार से इन जांबाजों को न ही आर्थिक मदद, न ही नौकरी चाहिए होगी, लेकिन दो शब्द लाजमी तौर पर हौंसला अफजाई करते।
30 हजार फीट की ऊंचाई पर एयरक्राफ्ट…
सेचिए, 30 हजार फीट की ऊंचाई पर एयरक्राफ्ट उड़ता है। इसी की बराबरी वाले माउंट एवरेस्ट पर तीन बेटों ने फतह पाई है। हर कदम पर ऐसा महसूस होता है कि किसी भी वक्त बर्फ में दफन हो जाएंगे। अगर दफन हुए तो परिवार को शायद शव भी न मिले। अमूमन एवरेस्ट पर मरने वाले पर्वतारोहियों के शव घरों तक नहीं पहुंचते हैं। अगर कोई लाना चाहे तो इसके लिए 50 से 60 लाख रुपए तक का खर्चा वहन करना पड़ता है। यहां ऐसे हालात होते हैं कि कोई साथ नहीं दे सकता। आपको अपना साथी खुद बनना पड़ता है।
ऐसे की मेहनत….
एवरेस्ट पर चढ़ने की टॉस्क गृह मंत्रालय द्वारा दी गई थी। बेशक ही एनएसजी के कमांडोज बनने के लिए भी एक कठिन प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है, लेकिन माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए एनएसजी के कमांडोज को भी दो साल की ट्रेनिंग लेनी पड़ी थी। 5365 मीटर ऊंचे बेसकैंप में कई सप्ताह रहकर साहस के साथ ट्रेनिंग एक अलग हिस्सा थी।