शिमला (एमबीएम न्यूज): अखबारों व टीवी पर चुनावी विज्ञापनों को लेकर प्रत्याशियों की मौज रहेगी। चुनाव आयोग ने व्यवसायिक की बजाय सरकारी दरों (डीएवीपी) को लागू किया है। इससे प्रत्याशियों को रिटर्न में दिखाने के लिए सस्ती दरें होंगी। संभावना है कि मीडिया हाऊस कतई भी प्रत्याशियों को सरकारी दरों पर विज्ञापन नहीं देंगे। लेकिन बीलिंग सरकारी दर की रह सकती है।
हरेक मीडिया हाऊस के अपने कमर्शियल रेट कार्ड होते हैं। इसमें प्रीमियम अलग होता है। दरअसल केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय के अधीन डायरेक्टेट ऑफ एडवरटाइजिंग एंड विजुअल पब्लिसिटी द्वारा मीडिया संस्थानों को सर्कुलेशन व दर्शकों की संख्या के आधार पर सरकारी दरें उपलब्ध करवाई जाती हैं। अमूमन सरकारी दर से पांच से सात गुणा तक व्यवसायिक दरें रहती हैं। मसलन एक समाचार पत्र की दर 10 रुपए स्क्वेयर मीटर है तो इसे 4 से गुणा कर 40 रुपए स्क्वेयर मीटर कर दिया जाता है।
सवाल यह उठता है कि आयोग ने सरकारी दरों को लागू करने की बजाय मीडिया संस्थानों के कमर्शियल रेटस को क्यों नहीं चुना। सूबे में सर्वाधिक सर्कुलेट होने वाले समाचारपत्र में सरकारी दर पर 20 से 30 हजार रुपए में पूरा पन्ना ही प्रकाशित हो जाएगा। कमर्शियल दर होने की सूरत में यही प्रकाशन एक से डेढ़ लाख रुपए के बीच होता। चुनाव के बाद जब रिटर्न फाइल करने का वक्त आएगा तो बड़ी आसानी से सरकारी दर ही दर्शाई जाएगी। जानकारों का कहना है कि अगर कमर्शियल रेट लागू किए जाते तो पेड न्यूज पर भी अंकुश लग सकता था। यानि यह साबित होने की सूरत में कि समाचारपत्र में प्रकाशित खबर पेड है तो कमर्शियल दर लगती।
क्या होती है पेड न्यूज?
चुनाव के वक्त मीडिया संस्थानों में पेड न्यूज का चलन पूरे यौवन पर होता है। इसमें खबरें प्रकाशित करवाने के लिए प्रत्याशियों द्वारा डील होती है, जिसमें अखबार या फिर चैनल की सर्कुलेशन व टीआरपी के आधार पर अदायगी होती है। संस्थान का जो कमर्शियल रेट होता है, उसी के आधार पर कीमत तय होती है। बहरहाल मतदाताओं को वोट डालने से पहले पूरे संयम से फैसला ले लेना चाहिए। पेड न्यूज की पहचान खबर के फॉन्ट यानि शब्दों के अंतर से भी कर सकते हैं।
गौरतलब है कि हाल ही में सोलन के उपायुक्त राकेश कंवर ने प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से बताया था कि प्रत्याशियों द्वारा जारी किए गए विज्ञापनों का डीएवीपी दरों के आधार पर आकलन होगा।