नाहन (एमबीएम न्यूज): कार्तिक मास की अमावस को दिवाली मनाई जाती है। लेकिन इसके एक माह बाद मार्गशीर्ष की अमावस पर ट्रांसगिरि क्षेत्र में एक ओर दिवाली का आगाज होता है, जिसे बूढ़ी दिवाली कहा जाता है। देवभूमि के कई दुर्गम क्षेत्रों में भी इस परंपरा को निभाया जाता है। पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी इस परंपरा को निभाने की रिवायत है।
दरअसल ऐसा माना जाता है, भगवान श्रीराम के लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने की खबर पहाड़ी क्षेत्रों में देरी से पहुंची थी, क्योंकि यातायात की पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। क्षेत्रवासियों को जब लंका विजय की खबर मिली, उस दिन को ही दिवाली के रूप में मनाया जाने लगा। मंगलवार से ट्रांसगिरि क्षेत्र में शिरगुल देवता की गाथाओं के साथ इस पर्व का आगाज हो गया है। अपने अनोखे अंदाज में लाखों लोगों ने इस पर्व को मनाने में अपनी भागीदारी शुरू की है।
एक खास बात यह भी है कि असल दिवाली पर यहां के लोग घर पहुंचे न पहुंचे, लेकिन बूढ़ी दिवाली पर देश के अलग-अलग हिस्सों से भी लोग घर पहुंचते हैं। खास तरह के पहाड़ी व्यंजन बनाने का सिलसिला लंबे समय तक चलता है। मक्की भून कर उसमें धान को नमक के पानी में 15 दिन भिगोकर उसका छिलका अलग किया जाता है। उसी से कूट व चिवड़ा बनते हैं।
इस पर्व से जुड़ी यह भी है जानकारी
सिरमौर जिले के गिरीपार क्षेत्र की लगभग 127 पंचायतो के अतिरिक्त शिमला जिले के चौपाल विधानसभा क्षेत्र, कुल्लू जिले के आनी व निरमंड क्षेत्र सहित उत्तराखंड के जनजातीय क्षेत्र जौनसार बाबर क्षेत्र में दिपावली का पावन त्यौहार एक माह बाद मनाया जाता है। जहां पूरे देश में यह त्यौहार कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। वही इन क्षेत्रो में यह त्यौहार मार्गशीर्ष मास की अमावस्या को मनाया जाता है।
यहां इस त्यौहार का नाम भी बदल जाता है। यहां इसे मशराली या बूढी दिवाली कहा जाता है। यहां यह त्यौहार एक मास के बाद मनाने के पीछे अलग-अलग तर्क एवं धारणाएं है। ऐसा माना जाता है कि यह क्षेत्र दूरदराज होने के कारण यहां राम के अयोध्या आगमन की सूचना देरी से पंहुची। इसी कारण यहां के लोगों ने इस त्यौहार को अगली अमावस्या को मनाने का फैसला लिया होगा।
दूसरा व्यवहारिक कारण यह भी माना जाता है कि इस सारे क्षेत्र की उंचाई लगभग 5 से 7 हजार फूट है। यहां काफी अधिक सर्दी पडती है। दिवाली के समय यहां पर लोग फसलो के भडारण, पशू चारे के भडारण, ईधन की लकडी एकत्र करने में व्यस्त रहते है। इस त्यौहार को मनाने के लिए इन लोगों के पास समय नही होता था।
बूढी दिवाली या मशराली का त्यौहार यहां तीन से सात दिन तक मनाया जाता है। यहां इस त्यौहार को बडे अनोखे अंदाज से मनाया जाता है। यहां ना तो पटाखो का शौर होता है, ना दीपको व बिजली के बलबो की कतारे देखने को नहीं मिलती। यहां यह त्यौहार अमावस्या के दिन से आरंभ होता है।
रात्रि को हर गांव में एक मशाल जलूस निकाला जाता है। गांव की परिक्रमा पूरी करके ग्राम देवता के मंदिर परिसर में समाप्त होता है। उसके बाद आग का विशाल अलाव जलाया जाता है। जिसे स्थानीय भाषा में घैना कहते है। उसके बाद लोक नृत्य का सिलसिला आर भ होता है। जिसमें पारंपरिक माला नृत्य, हारूल, रासा, नाटी व करियाला आदि शामिल है। करियाला में पहाडी भाषा में रामायण व महाभारत का मंचन होता है।
इस त्यौहार के लिए यहां खान-पान का भी विशेष ध्यान रखा जाता है। पारंपरिक व्यंजनो का दौर चलता है। जिसमे विशेष रूप से अखरोट की गिरी, गेहू, मक्की का मीठा, नमकीन मूडा, सिडकू, मालपूडे, पटाडे, लुशके, असकली, चिलटू, शाकली, चिउडे, मीठा आटा आदि शामिल है।
यहां विशेष बात यह है कि यहां इन क्षेत्रो में मांसाहारी भोजन का काफी प्रचलन है। मगर इस त्यौहार में केवल शाकाहारी भोजन ही बनाया जाता है। लोग सात्विक रह कर मशराली का त्यौहार मनाते है। इन क्षेत्रों में मनाई जाने वाली मशराली इस बात का प्रतीक है कि यहां के लोग आज के आधुनिक समय में भी अपनी पारंपरिक प्राचीन धार्मिक संस्कृति एवं रिति रिवाजो को नहीं भूले है।