वी कुमार/मंडी
आज बात करते हैं हिमाचल प्रदेश के उस संसदीय क्षेत्र के बारे में जिसे राजाओं और रजवाड़ों की सीट कहा जाता है। इस सीट पर राजाओं और रजवाड़ों को आम नेताओं ने हराकर इतिहास भी रचा है। मौजूदा समय में भी इस सीट पर रानी को हराकर एक साधारण नेता को सांसद चुना गया है। 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तो उस वक्त राजाओं के राज भी समाप्त हो गए। शासन और प्रशासन के पास बागडोर आ गई और भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में सामने आया। लेकिन आजादी की आधी सदी बीत जाने के बाद भी देश में राजाओं और रजवाड़ों का साम्राज्य समाप्त नहीं हुआ। आज भी राज परिवारों का दबदबा राजनीति में देखने को मिल जाता है।
मंडी संसदीय सीट को राजाओं और रजवाड़ों की सीट कहा जाता है। यह सीट क्षेत्रफल के लिहाज से सबसे बड़ी सीट है और हिमाचल प्रदेश का आधा भाग इसी सीट के तहत आता है। इसमें राजाओं के जमाने की 5 प्रमुख रियासतें आती हैं जिनमें मंडी, सुकेत, कुल्लू, लाहुल स्पिति और रामपुर बुशहर रियासत शामिल है। 1952 में जब पहली बार देशभर में लोकसभा के आम चुनाव हुए तो इस सीट से 2 सांसद चुने गए। एक थी रानी अमृत कौर जो पटियाला राजघराने की राज कुमारी थी और दूसरे थे गोपी राम। गोपी राम दलित समुदाय के प्रतिनिधि थे और उस वक्त दलितों की आबादी के लिहाज से 2 सांसद चुने जाने की व्यवस्था थी। रानी अमृत कौर न सिर्फ मंडी से पहली सांसद चुनी गई बल्कि देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री भी बनी। वह कांग्रेस से संबंध रखती थी।
इसके बाद 1957 में जो चुनाव हुए उसमें कांग्रेस पार्टी ने मंडी रियासत के राजा रहे जोगिंद्र सेन को टिकट दिया और वह जीतकर संसद पहुंचे। 1962 और 67 में सुकेत रियासत के राजा ललित सेन को टिकट दिया गया और दोनों ही बार वह जीतकर संसद पहुंचे। 1971 में रामपुर बुशेहर रियासत के राजा वीरभद्र सिंह को कांग्रेस पार्टी ने मंडी सीट से टिकट दिया और उन्होंने भी जीत हासिल करके देश की संसद में कदम रखा। यहीं से वीरभद्र सिंह की राजनीतिक पारी की शुरूआत हुई और वह कई बार सांसद और 6 बार प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। इसके बाद बारी आई कुल्लू रियासत के राजा महेश्वर सिंह की।
1989 के चुनावों में भाजपा ने महेश्वर सिंह को टिकट दिया और उन्होंने जीत हासिल करके अपनी रियासत के लोगों का सपना पूरा किया। 1998 में रामपुर बुशहर की रानी प्रतिभा सिंह ने राजनीति में कदम रखा और मंडी सीट से चुनावी मैदान में उतरी। लेकिन वह पहला चुनाव हार गई। उन्हें भाजपा के महेश्वर सिंह ने ही हराया। 2004 में कांग्रेस ने प्रतिभा सिंह को फिर से मौका दिया और इस बार उन्होंने महेश्वर सिंह को हराकर संसद में कदम रखा। 2009 में फिर से वीरभद्र सिंह मैदान में उतरे और जीत हासिल की जबकि उनके सीएम बनने के बाद खाली हुई इस सीट पर उनकी धर्मपत्नी ने ही उपचुनाव लड़ा और जीत हासिल की।
राजनीतिक विशलेषक विनोद भावुक बताते हैं कि मंडी संसदीय सीट पर 16 चुनाव और एक उपचुनाव हुआ, जिसमें से 11 बार राज परिवारों के सदस्यों ने जीत हासिल की जबकि मात्र 5 बार ही आम नेता चुनकर आ सके। भावुक के अनुसार यह सीट अधिकतर राज परिवारों के पास ही रही और आज भी इस सीट पर राज परिवारों का आधिपत्य पूरी तरह से बरकरार है। वरिष्ठ पत्रकार बीरबल शर्मा के अनुसार रजवाड़ों की सीट होने के साथ साथ इस सीट पर कांग्रेस का भी अधिक कब्जा रहा।
महेश्वर सिंह को छोड़कर राज परिवारों के जितने भी सदस्य इस सीट से चुनावी दंगल में उतरे उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर ही चुनाव लड़ा। मौजूदा समय की बात करें तो इस बार भी राज परिवारों से वीरभद्र सिंह, उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह और कुल्लू से महेश्वर सिंह के चुनाव लडऩे की अटकलें लगाई जा रही हैं। कहा जा सकता है कि भविष्य में शायद ही इस सीट से कभी पूरी तरह से राजाओं और रजवाड़ों का दौर समाप्त हो पाएगा।