कांगड़ा जिला के धलूं गाँव से सम्बध रखने वाले विनोद भावुक का यह पहला काव्य संग्रह है, जिसमें कवि ने समकालीन विषयों पर अपनी पीड़ा और चिन्ता को सुन्दर शब्दों में पिरोया है। प्रिया प्रकाशन, रैत द्वारा प्रकाशित इस 124 पृष्ठीय संग्रह में कवि ने अपने जीवन के अब तक के अनुभव को शब्दों में ढाला है।
उनके संग्रह का शीर्षक “मेरिया गल्लां गाजड़बेल” ही अपने आप में उनकी कृति का पूर्ण परिचय दे देता है। पाठक के दिल में सीधे उतरने वाली उनकी शैली तथा जिन्दगी के अनुभवों में उनके शब्दों ने ऐसा तानाबाना बुना है, जो सामाजिक एवं व्यैक्ति निष्क्रियता को सक्रियता में बदल देता है। कोशिश पाठक की निष्क्रियता को समाप्त कर उसे उद्वेलित करती है, अपने आस-पास कुछ नया करने की। साथ ही उसे कुछ रचनात्मक कदम उठाने के लिए भी प्रेरित करती है, जो समाज में नयापन ला सकता है।
उनके इस संग्रह में आम बोलचाल की चुलबुली भाषा के शब्दों, प्रचलित मुहावरों तथा लोकोक्तियों के संयोजन का जादू एक अनूठापन लिए है, जिसमें अपनापन भी है और मनुहार भी चेतने की। उनकी कविताएं तथा गजलें पाठकों को जगाती हैं और उन्हें समाज में कुछ नया करने की प्रेरणा भी देती हैं। जीवन को शिद्दत से महसूस करने की उनकी तड़प इन पंक्तियों में देखी जा सकती है-
“छड सडका, पंगडंडी दिक्ख, दी तां जोता हंडी दिक्ख।
सामाजिक जीवन में आ रही चारित्रि गिरावट पर चोट करने से भी वह पीछे नहीं हटते”
पुस्तक के आरम्भ में भूमिका खंड में रमेश चंद्र मस्ताना द्वारा सौंधी-सौंधी सुगन्ध बिखेरती जमीन से जुड़ी कविताएं, वीरेन्द्र शर्मा द्वारा भावुकता से ओतप्रोत भावुक दा संसार, विजय कुमार पुरी द्वारा आन्तरिक अनुभूतियों में छटपटाता पहाड़ी परिवेश तथा स्वयं व्यक्त मने दियां दो गल्लां में उनके विचार उनकी रचनाओं की सार्थकता को उसी तरह सिद्ध करते हैं, जैसे किसी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में मान मापदंडों तथा परिस्थितियों में कोई प्रयोग खरा उतरता है।