राजगढ़ (शेरजंग चौहान) : हर क्षेत्र के लोगों का जीवन तीन खंबों कला, भाषा एवं संस्कृति पर टिका रहता है। यदि ये तीनों खंबे जर्जर हो कर गिरने लगें तो समझ लो क्षेत्र का नाम इतिहास के पन्नों पर सिमटने वाला है। यही कारण है कि दुनिया के बड़े से बड़े देश भी अपनी संस्कृति को संजोये रहते हैं। इसी वास्तविकता को आधार मानकर, हर क्षेत्र के लोग अपनी अपनी कला, भाषा एवं संस्कृति को बचाने में प्रयासरत रहते हैं।
हालांकि इन तीनों विधाओं के संरक्षण एवं संवर्धन में अलग-अलग पुरोधा लगे रहते हैं, परन्तु राजगढ़ क्षेत्र में अन्य साहित्यकारों के साथ-साथ एक व्यक्ति ऐसे भी हैं, जो तीनों विषयों को समान रूप से संरक्षण प्रदान करने में दिन-रात एक किए हुए हैं और वे हैं विद्यानंद सरैक। हालांकि सरैक का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है फिर भी इनका संक्षिप्त परिचय देना, आवश्यक पहलुओं में से एक है।
देवठी मझगांव निवासी विद्यानंद सरैक कभी अध्यापन कार्य से जुड़े हुए थे मगर उनकी पहाड़ी संस्कृति से लगन, उन्हें अधिक देर तक सरकारी नौकरी में नहीं बांध सकी और स्थानीय संस्कृति को जगजाहिर करने में व्यस्त हो गए। आज यह स्थिति हो गई है कि ये कभी कभार ही अपना घर देख पाते हैं वर्ना हर समय किसी न किसी सांस्कृतिक सम्मेलन अथवा किसी संस्था के कार्य में जुटे रहते हैं।
यदि इनकी तीनों विधाओं की बात की जाए तो सबसे पहले ये प्रमुख गायक एवं नृत्य कलाकार के रूप में ख्यातिप्राप्त व्यक्ति हैं। इतिहास की बात की जाए तो जिला सिरमौर की प्रथम पहाड़ी आडियो केसेट ‘‘डमाका-92’’ में इन्होंने स्वरचित तीन नाटियों को स्वर दिया था जो उस दौरान ही नहीं आज भी काफी प्रचलित हैं। हर महफिल में उनकी नाटियों पर नृत्य नहीं हुआ तो समझ लो कार्यक्रम जमा नहीं।
संस्कृति की बात की जाए तो इससे पहले 1970 के दशक में इन्होंने ‘‘झांखो-अजबा’’ नामक नाटक की स्क्रिप्ट भी लिखी थी जो पहाड़ पर सती हाने की पहली घटना पर आधारित थी। ये नाटक ‘‘पहाड़ी कलाकार संघ’’ के कलाकारों द्वारा तैयार किया गया था जिसे गेयटी थियेटर और तत्कालीन महामहिम गवर्नर के समक्ष मंचित किया गया था।
विद्यानंद सरैक अपने आप को आज भी उसी संघ का मानते हैं और अपनी कामयाबी का श्रेय पहाड़ी कलाकार संघ को ही देते हैं। इसके अलावा पहाड़ी भाषा के संदर्भ में सरैक का योगदान भी कम नहीं है। ये चंद्रमणी वशिष्ठ ( सिरमौर कला मंच के संस्थापक) के समय में पहाड़ी साहित्यकार, लेखक एवं कवि के रूप में उभर चुके थे। इन्होंने कवि के रूप में ‘‘चिट्टी चादर’’ के नाम से पहला पहाड़ी कविता संग्रह निकाला था जिसे काफी सराहना मिली थी।
लेखक के तौर पर इनकी गीता एवं गीतांजली का सिरमौरी भाषा में अनुवाद छपने को तैयार हैं जबकि भर्तरी हरि शतक, ठोडा, भजूड़ी, गुंजन एवं भड़ाल्टु छप चुके हैं। इनके अतिरिक्त काल और ताल का अभी लेखन जारी है।
विद्यानंद सरैक की विशिष्ट प्रतिभा को देखते हुए कई संस्थाओं ने इन्हें इनके साहित्य रचना के लिए सम्मानित भी किया है जिसके तहत पिछले दिनों जालंधर की ‘‘पंकस’’ ( पंजाब कला संस्कृति अकादमी) संस्था द्वारा 27 नवंबर को विशिष्ट साहित्य कला संस्कृति एवं नृत्य सम्मान से नवाजा गया है।
इसके अलावा सिरमौर कला मंच तथा हिमोत्कर्ष संस्था ने भी इनके पहाड़ी संस्कृति के संरक्षण की भूमिका को देखते हुए सम्मानित किया है। ये आजकल प्रदेश भाषा अकादमी के सदस्य भी हैं। इसके अलावा ये चुडे़श्वर कला मंच के निदेशक हैं जो देश विदेश में अपने कार्यक्रम देते रहते हैं।