राजगढ़ (शेरजंग चौहान) : बहुत कम लोग जानते होंगे कि पहाड़ों पर भी नाश्ता करने का रिवाज था। इस बात का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि नाश्ता शब्द के लिए कोई पहाड़ी पर्यायवाची शब्द भी प्रचलित नहीं है। मगर आप को जानकारी दे दें कि पहाड़ों पर सदियों से नाश्ता करने का प्रचलन रहा है। नाश्ता करने के लिए भी ठेठ पहाड़ी एवं स्टीक शब्द का प्रयोग किया जाता था। आज भले ही नाश्ते करने को शहरी लोगों की देन समझा जाता हो परन्तु ऐसा नहीं है।
पहाड़ों पर एक कीट होता है जिसे ‘‘निन्नां’’ कहते हैं और झींगुर श्रेणी में आता है। यह निंनिं करता है इसलिए इसे निंन्नां कहते हैं। यह सुबह 9 बजे तक पूरे जोर से इस आवाज निकालता रहता है और फिर बोलना बंद कर देता है। उसके बाद दोपहर अथवा सांय को भी यह अपनी जोरदार आवाज निकालता रहता है। कई झींगुरों के साथ-साथ बोलने से वातावरण इनकी निंनिं की आवाज से गूंज उठता है। इनका यह समय हर रोज एक जैसा ही होता है।
इन तीनों समयों को ग्रामीणों ने खाना खाने के समय के साथ बांध दिया है। सुबह के नाश्ते को ‘निंन्नां’ दोपहर के खाने को ‘जठालना’ और सांय के खाने को ‘बैली’ कहते हैं। यह प्रथा सदियों से चली आ रही हैै, जिसमें नाश्ते का भी प्रावधान होता था।
यह झींगुर अथवा निंन्नां हमारी अन्य सामाजिक जीवनी से भी जुड़ा हुआ है। ये गर्मियों में से आरंभ हो कर सर्दियों से पहले तक जीवित रहता है उसके बाद किसी पेड़ पर लटका यह अपना सूखा खोल छोड़ कर शायद अन्य किसी कीट में परिवर्तित हो जाता है।
उसके इसी सूखे और खाली पड़े खोल को देख कर ग्रामीण लोगों ने एक लोकोक्ति भी बनाई हुई है, जिसे ‘‘तेरा तो निंन्नां जेया शुका’’ अथवा ‘‘निंन्ना जेया शुकला’’ यानि तू तो झींगुर की तरह सूख गया। वैसे इन्हीं झींगुरों के झीं झीं करने के कारण अंग्रेजी में क्रिकेट एंड द आंट कविता भी बनाई है।