पांवटा साहिब, 14 जनवरी : 90 के दशक तक पांवटा साहिब में ग्रैजुएशन (Graduation) करने वाले स्टुडेंटस को पढ़ाई के लिए नाहन जाना पड़ता था। इस दशक की शुरूआत में पांवटा साहिब में काॅलेज खोलने की मांग उठी। द स्काॅलर्स होम (The Scholars Home) के मौजूदा निदेशक नरेंद्र पाल सिंह नारग भी उस प्रदर्शन में अग्रणी भूमिका में थे, जो काॅलेज की मांग को लेकर चला। बेहतरीन शिक्षा के विकल्प मौजूद नहीं थे।
परिवार का इतना सामर्थ्य था कि वो बेटे को बड़े शहर में पढ़ाई के लिए भेज सकता था, लेकिन परिवार के मुखिया इस बात को तैयार नहीं थे। यही टीस थी कि कारोबारी व सामाजिक क्षेत्र से जुड़े नरेंद्र पाल सिंह नारग ने ये तय कर लिया था कि पांवटा साहिब में ही कुछ अलग करेंगे। 32-33 साल की उम्र में द स्कालर्स होम की नींव 2003 में 50 छात्रों के साथ रखी। इस समय छात्रों की संख्या 1400 के आसपास है।
दरअसल, द स्कालर्स होम के निदेशक डाॅ. नरेंद्र पाल सिंह नारग इस कारण चर्चा में हैं, क्योंकि थियोफनी यूनिवर्सिटी (Theophany University) ने उन्हें हाल ही में दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में डाॅक्ट्रेट ऑफ फिलॉसफी (Doctorate of Philosophy) की मानद उपाधि से नवाजा है। इस दौरान चार विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर भी मौजूद रहे। इससे इस बात पर भी मुहर लग गई है कि सरदार नरेंद्र पाल सिंह नारग ने शिक्षा के क्षेत्र में मुकाम हासिल किया है। शिक्षा के क्षेत्र में नए प्रयोग, शानदार व्याख्यान व दर्शन शास्त्र पर जानकारी के आदान-प्रदान में एक अहम भूमिका निभाई।
एमबीएम न्यूज नेटवर्क से बातचीत में डाॅ. नरेंद्र पाल सिंह नारग कुछ भावुक भी हुए। उनका कहना था कि वो बेहतर से बेहतर शिक्षा लेना चाहते थे, लेकिन खुद की जिद थी कि पांवटा साहिब में ही रह कर पढेंगे। पैतृक शहर में शिक्षा को लेकर बहुत बड़ा शून्य था। तब मन में यही सोच जगी थी कि एक ऐसे स्कूल की स्थापना करनी है, जो आने वाले वक्त में शिक्षा के क्षेत्र में बेहतरीन सेवाएं प्रदान कर सके।
उन्होंने बताया कि स्कूल को सैंटर ऑफ एक्सीलेंसी (center of excellence) बनाया गया है। ‘‘आत्म आभा’’ कार्यक्रम भी शुरू किया गया है, जो फिलॉसफी (Philosophy) पर अध्ययन व चर्चा के लिए छात्रों को उचित मंच प्रदान करेगा। उन्होंने कहा कि दूसरे कदम में स्कूल को काॅलेज के स्तर पर अपग्रेड करने का सपना है, क्योंकि वो दिन आज भी याद है, जब काॅलेज न होने को लेकर प्रदर्शन के दौरान डंडे भी खाने पड़े थे। उल्लेखनीय है कि 1992-93 में पांवटा साहिब में काॅलेज तो खुल गया था, लेकिन इसके बाद भी कई वर्षों तक विज्ञान संकाय की पढ़ाई के लिए रोजााना छात्रों को नाहन ही आना पड़ता था।