नाहन, 4 जनवरी : आधुनिक दौर में हम बहुत सी परंपरागत चीजों से अनजान हैं। इनमें से एक है रिंऊद। कपड़े धोने की ये परंपरागत वाॅशिंग मशीन अपने में बहुत सारी खूबियां समेटे हुए है। आज कपड़े धोने में इलैक्ट्रिकल फुली ऑटोमैटिक वाॅशिंग का इस्तेमाल होता है। प्राचीन समय में कपड़े धोने के लिए घरेलू विधियों द्वारा विशेष प्रकार के बर्तन या टब का इस्तेमाल किया जाता था, जिसे पहाड़ी भाषा में रिंऊद कहा जाता है।
लुप्त होने के कगार पर रिंऊद सिरमौर के ऊपरी क्षेत्रों में हालांकि आज भी मौजूद हैं, लेकिन इनका इस्तेमाल न के बराबर किया जाता है। देवदार की लकड़ी से रिंऊद को तैयार किया जाता है। इसमें ऑर्गेनिक साबुन का घोल तैयार कर उसे कपड़े धोने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
कैसे होती है रिंऊद से कपड़ों की धुलाई…
सबसे पहले देवदार की मोटी लकड़ी को अच्छी तरह से खुरच कर बड़े पात्र की शक्ल दे दी जाती है। फिर इसे मिट्टी के नीचे गाड़ दिया जाता है। इसके बाद बारी आती है ऑर्गेनिक साबुन बनाने की, जिसे छोई कहा जाता है।
गहरे लकड़ी के पात्र के ऊपर आर-पार लकड़ी का तख्ता रख दिया जाता है, ताकि उसके ऊपर ओडा यानि टोकरा रखा जा सके। टोकरे की सतह पर खट्टी पत्तियों (मरोढ़ा) को कूटकर बिछा दिया जाता है, ताकि बनाया गया मिश्रण छनकर लकड़ी के टब में जा सके। पत्तियों के ऊपर भेड़ बकरियों का मल (मिंगणियां) की परत लगभग एक किलो डाल दी जाती हैं। इसके बाद चूल्हे की राख की परत लगभग आधी टोकरी तक बिछा दी जाती है। टोकरी के शेष हिस्से में गोबर का लेप लगाकर पानी से भर दिया जाता है।
गोबर इसलिए लगाया जाता है ताकि मिश्रण से तैयार होने वाला जैविक साबुन बाहर न निकले, सीधे लकड़ी के टब में जाए। मिश्रण से बना साबुन रिस-रिस कर लकड़ी के गोल मात्र में जमा होता रहता है, जिसे छोई कहा जाता है। इस तरह से तैयार हुए ऑर्गेनिक साबुन में गंदे कपड़ों को दिन भर या आवश्यकतानुसार रात भर डुबोकर रखा जाता है। इसके बादल भिगोए गए कपडों को मल-मल कर थापी से पीटा जाता है। फिर साफ पानी में खंगाककर निचोड़ कर सुखा दिया जाता है।
इस प्रक्रिया से धोए गए कपड़ों का न तो रंग फीका पड़ता है और न ही सिकुड़ते हैं। भागदौड़ के समय में इस तरह की प्रक्रिया काफी जटिल है व इसमें काफी समय लगता है। कुल मिलाकर इसमें कोई दो राय नहीं है कि पारंपरिक तरीके कारगर होने के साथ-साथ गुणवत्तायुक्त होते है।