बिलासपुर ,14 मार्च : एक समय था जब नलवाड़ी मेला लोगों से कम बल्कि पशुओं से ज्यादा भरा हुआ होता था। क्योंकि नलवाड़ी का अर्थ पशुओं का क्रय-विक्रय होना। लेकिन अब एक समय ऐसा भी आ गया है कि यह नलवाड़ी मेला नाम-मात्र अपनी औपचारिकताएं पूरी कर रहा है। नलवाडी के अर्थ को पूरा करने में कोई भी सफल नहीं हो रहा है। बिलासपुर के बुद्विजीवी व पुराने लोगों की मानें तो उनका कहना है कि नलवाड़ी मेले को आधुनिकता खा गई है, क्येांकि पशुओं की खरीददारी के लिए बनाया गया यह नलवाड़ी मेला अब सिर्फ आधुनिकता के सामान की खरीददारी के लिए बनकर रह गया है।
करीब 132 वर्ष पूरे कर चुके नलवाड़ी मेले का स्वरूप अब बदल गया है। गोबिंद सागर झील में डूबे सांडू के मैदान में आयोजित होने वाले मेले ने नए शहर बिलासपुर के लुहणू मैदान तक का लंबा सफर तय किया है। नलवाड़ी का आकर्षण आम जनता के लिए तब भी था और आज भी है। 60 के दशक में नलवाड़ी मेला सांडू मैदान में राजा के आदेशों के मुताबिक चलता था। उस समय भी यहां पर व्यापारी सामान लेकर पहुंचते थे। तब ऊंटों में सामान लेकर व्यापारी पंजाब के रोपड़ व नवांशहर से यहां पहुंचते थे। रोपड़, नालागढ़ और बिलासपुर के ग्रामीण क्षेत्रों से बैलों की मंडी नलवाड़ी मेले में लगती थी।
हजारों की संख्या में पशुओं का क्रय-विक्रय होता था। बताया तो यह भी जाता है कि पुराने शहर से हर परिवार की महिलाएं बैलों को आटे के पेड़े खिलाती थी। इसे पुण्य माना जाता था। हालांकि उस समय बिजली की व्यवस्था नहीं होती थी, लेकिन तब भी काफी चकाचैंध रहती थी। लेकिन समय के साथ नलवाड़ी मेला बिलासपुर के नए लुहणू मैदान में शिफ्ट हो गया। यहां पर मेला और रंग रंगीला हो गया। पहले इस मेले का आयोजन नगर पालिका करती थी लेकिन बाद में इसे राज्य स्तरीय मेला घोषित कर दिया गया। जिसके बाद जिला प्रशासन व सरकार ने इसे चलाना शुरू कर दिया। पहले भी नलवाड़ी मेले में छिंज मुख्य आकर्षण थी।
करीब 47 वर्षों से इस मेले को लुहणू मैदान में आयोजित किया जाता है। नलवाड़ी मेले में पहले भी रात्रि कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। जिसमें प्रसिद्ध लोक कलाकार लोक संस्कृति से ओतप्रोत कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे। उस समय स्वर्गीय गंभरी देवी, रोशनी देवी व संतराम चब्बा आदि प्रसिद्ध लोक कलाकार हुआ करते थे। जिन्हें सुनने के लिए दूर-दराज के क्षेत्रों से लोग पहुंचते थे। किसी समय उत्तर भारत के प्रसिद्ध मेलों में बिलासपुर का नलवाड़ मेला अब अपना वास्तविक स्वरूप खो चुका है। कभी लाखों के पशुधन का इस मेले में कारोबार होता था। अब यहां बैल पूजन के लिए भी बैल मंगवाने पड़ते हैं।
हालांकि मेलों में लोग नाममात्र की गाय, भैंस और कुछ बैल लेकर पहुंचते हैं। वह भी कारोबार को न होकर यहां आयोजित होने वाली पशु प्रतियोगिताओं में भाग लेने पहुंचते हैं। जिस कारण अब यह मेला रस्मों को अदा करने तक ही रह गया है। हालांकि सरकारी अमले का मेले को सफल बनाने का काफी प्रयास रहता है।
वहीं मेले के पतन के लिए आधुनिकता की चकाचैंध को भी काफी हद तक जिम्मेवार माना जा रहा है। क्योंकि जब से ट्रैक्टर से खेती का प्रचलन बढ़ा तब से लेकर अब धीरे-धीरे बैलों का महत्व खत्म होता जा रहा है। बिलासपुर में भी पहले नलवाड़ी में लाखों का कारोबार बैलों की खरीद फरोख्त का होता था। यही नहीं दूसरे राज्यों से भी इस मेले में बैलों के कारोबारी पहुंचते थे। अब हालत ऐसी हो गई कि मेले के उद्घाटन के मौके पर भी बैल तलाश कर पहुंचाए जाते हैं।
1985 में पूर्व मंत्री रामलाल ठाकुर ने शुरू की थी शोभायात्रा
प्राप्त जानकारी के अनुसार 1985 में बिलासपुर जिला से पहली बार रामलाल ठाकुर मंत्री बने थे। ऐसे पूर्व में रहे वन मंत्री रामलाल ठाकुर ने उस वक्त के रहे मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह से इस मेले को राज्य स्तर का दर्जा दिलाया था। उसके बाद पहली बार नगर के लक्ष्मी नारायण मंदिर से नलवाड़ी मेले के लिए पहली बार शोभायात्रा निकाली गई थी। उसके बाद यह प्रचलन अब हर साल किया जाता है।
कुश्तियों में पाकिस्तान से आते थे पहलवान
जानकारी के अनुसार बिलासपुर के नलवाड़ी मेले में पाकिस्तान तक के पहलवान यहां पर अपना दमखम दिखाने के लिए पहुंचते थे। वहीं, बिलासपुर में मासर चांदी राम हरियाणा, मेहर दीन पाकिस्तान व अन्य नामी पहलवान बिलासपुर की कुश्ती में अपना दमखम दिखा चुके है। लेकिन अब की कुश्ती में वह पुरानी बात नहीं रही हैं। क्योेंकि लोगों का कहना है कि अब की कुश्ती सिर्फ पैसाबटोरने वाली रह गई है। क्योंकि पहले की कुश्ती में पहलवान कम जबकि अखाड़ा ज्यादा बोलता था।