नाहन, 14 मार्च : 400 वर्षीय ऐतिहासिक शहर के वैभव व शान का प्रतीक नाहन फाउंडरी रही है। यह अलग बात है कि समय के थपेड़ों में वजूद समाप्त हो गया है।
हर कोई फाउंडरी के नाम से तो वाकिफ है, लेकिन शायद कोई यह नहीं जानता कि इस कारखाने को काफी समय तक ‘‘गोपालू मिस्त्री’’ ने चलाया। बाद में राजा ने अंग्रेज मिस्टर परटिया को फाउंडरी का सुपरिटेंडेट नियुक्त किया था, जिन्होंने दो साल तक कार्य किया। इसके बाद मिस्टर टिस्वरी की नियुक्ति हुई थी। उपलब्ध इतिहास के मुताबिक मिस्टर मैक्डोनाल्ड को सुपरिटेंडेट इंजीनियर का पदभार सौंपा गया था।
हुआ यूं था कि सिरमौर रियासत के शासक शमशेर प्रकाश 1861 (विक्रमी सम्वत् 1918) में गंगा स्नान के लिए रूड़की के रास्ते हरिद्वार गए थे। रूड़की में फाउंडरी कारखाना देखने का मौका मिला था। इसे देखते ही इस प्रकार का कारखाना रियासत में स्थापित करने का फैसला लिया।
राजा को वैज्ञानिक शिक्षा की कोई जानकारी नहीं थी। बावजूद इसके कारखाना चलाने की पूरी जानकारी हासिल की। वापस लौटकर राजा ने ‘‘गोपालू लोहार’’ को काम सीखने के लिए रूड़की भेजा। जब वह दो साल बाद काम सीख कर वापस लौटा तो विक्रमी सम्वत 1921 में एक छोटा सा फाउंडरी कारखाना नाहन में स्थापित कर दिया गया। चार हाॅर्स पावर का एक छोटा सा ईंजन व बायलर मंगवाया गया। कुछ खरादें भी मंगवाई गई। एक छोटी सी भट्टी लोहा ढालने के लिए बनाई गई। हर रोज छोटी-छोटी चीजों का उत्पादन होने लगा।
दूसरा ईंजन 10-12 हाॅर्सपावर का मंगवाया गया। इसके बाद कारखाने में जंगलें व फाटक तैयार होने लगे। इसी दौरान राजा को यह सूचना मिली कि गिरिपार क्षेत्र में लोहे की खानें हैं, लोहा मिल सकता है। खानों की पूरी छानबीन करवाने का निर्णय लिया गया। उस समय मिस्टर मैक्डोनाल्ड सुपरिटेंडेट थे। मैक्डोनाल्ड ने रिपोर्ट दी कि मौजाचेता की खान से लोहा मिल सकता है। राजा ने जेल को चेता स्थानांतरित कर दिया। धातुओं की ढुलाई के लिए खच्चरें भी रखी गई। इसी बीच 70 हाॅर्सपावर का ईंजन कारखाने में मंगवा लिया गया था।
खान से लोहा निकालने का सौदा महंगा साबित हुआ। यह नतीजा निकला कि यह लोहा कुल खर्चों को मिलाकर विलायत से आने वाले लोहे के मुकाबले में महंगा रहेगा। बगैर इस बात पर गौर किए, चेता से लोहा आना शुरू हो गया। आखिर में खान से लोहे की ढुलाई बंद कर दी गई। इससे रियासत को नुक्सान का सामना भी करना पड़ा था।
नुक्सान व असफलता के बावजूद राजा ने कारखाने को बंद करने का फैसला नहीं लिया। पांच साल की सेवाओं के बाद मैक्डोनाल्ड का देहांत हो गया। इसके बाद एल्डर साहिब को इंजीनियर नियुक्त किया गया। वो 8 साल तक तैनात रहे।
सलाहकारों के विरोध के बावजूद भी राजा ने कारखाने को जारी रखने का फैसला लिया। इसके बाद कारखाने के सुपरिटेंडेट इंजीनियर जाॅन साहब को नियुक्ति मिली। इसी बीच जाॅन साहब ने गन्ने का रस निकालने की चरखी तैयार करनी शुरू कर दी। ये कृषकों को काफी पसंद आने लगी। धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश व पंजाब में चरखी के लिए एजेंसियां स्थापित हुई। ये चरखियां मासिक किराए पर दी जाने लगी। कारखाने को लाभ मिलना शुरू हो गया। इससे राजा को भी काफी प्रसिद्धि मिली।
बता दें कि छोटा सा कारखाना 1864 में ही वजूद में आ गया था, लेकिन असल कारखाने की स्थापना 1875 में ही मानी जाती है।
ये भी हैं कुछ खास बातें…
फाउंडरी के मुख्य गेट के सामने ही 1945 में महा प्रबंधक के लिए आवास का निर्माण हुआ। ब्रिटिश हुकूमत के इंजीनियरों ने इस भवन का निर्माण किया। इस समय ये भवन जिला एवं सत्र न्यायधीश का आवास है। 80 के दशक तक भी फाउंडरी में उत्पादन होता रहा। उस समय कर्मचारियों के लिए एक खास कैंटीन भी हुआ करती थी। इसमें बनने वाली इमरतियां, समोसे के ग्राहक तो शहरवासी भी हुआ करते थे। शाम 4 बजे छुट्टी का सायरन बजते ही नया बाजार नीले रंग की यूनिफार्म पहने कर्मचारियों से भर जाता था।
नाहन फाउंडरी को 20 अक्तूबर 1992 को कंपनी अधिनियम के तहत लाया गया। उस समय सार्वजनिक व असूचीबद्ध कंपनी थी। 1992 में कंपनी की अधिकृत पूंजी 400 लाख थी। कंपनी की चुकता पूूंजी 350.14 लाख थी। नाहन फाउंडरी लिमिटेड की अंतिम वार्षिक आम बैठक 21 दिसंबर 2010 को आयोजित हुई थी। कंपनी ने अंतिम बार 31 मार्च 2010 को कार्पोरेट मामलों के मंत्रालय के मुताबिक अपना वित्तीय अद्यतन किया था।