नाहन, 4 मार्च : 400 साल के इतिहास को समेटे नाहन शहर कई रोचक पहलू भी अपने दामन में छिपाए है। हर कोई इस बात से बखूबी वाकिफ है कि जहां सरकार ने 80 के दशक में इंटरस्टेट बस स्टैंड का निर्माण किया था, उस जगह को कच्चा टैंक कहा जाता था। लेकिन शायद ही कोई जानता हो कि ये बीड़ा नामी रंगड लुटेरे का ठिकाना भी हुआ करता था। इस समय उसके ठिकाने पर लक्ष्मी नारायण मंदिर है।
लुटेरा रांगड़ जोहड़ का इस्तेमाल भैंसों के लिए किया करता था। साधारण शब्दों में समझें तो भैंसों की जोहड़ी (तलाई) थी। शहर के बसने से पहले इस जगह को कच्ची जोहड़ी कहा जाता था। उस जमाने में ये एक जंगल से घिरा हुआ क्षेत्र था। साथ ही एक छोर पर था। इस कारण लुटेरे को छिपने में भी आसानी होती होगी। अगर आज भी मौजूदा इंटर स्टेट बस स्टैंड के आकार को देखा जाए तो साफ लगता है कि ये एक जमाने में एक बड़ा तालाब था।
बता दें कि शहर को तालाबों का शहर के नाम से भी पहचाना जाता रहा है। कंवर रणजोर सिंह द्वारा लिखित तारीख-ए-सिरमौर के हिन्दी रूपांतर में इस बात का जिक्र मिलता है कि कच्चा तालाब के किनारे रंगड़ लुटेरा रहा करता था, मगर इस बात का जिक्र नहीं है कि उसने इस जगह को कब छोड़ा या फिर उसे राजा द्वारा सजा दी गई। लेकिन ये जरूर माना जाता है कि रंगड़ लुटेरा नाहन शहर के बसने पर वहां से हट गया होगा।
इसकी वजह ये भी थी कि कर्म प्रकाश द्वारा नाहन को अपनी राजधानी बना दिया गया था। 1868 (विक्रमी सम्वत 1955) में कच्चा तालाब के किनारे राजा फतेह प्रकाश के पुत्र कंवर वीर सिंह ने जन कल्याण के लिए एक धर्मशाला भी बनवाई थी। इसके कुछ समय बाद समीप ही मस्जिद का निर्माण भी करवाया गया था।
उधर, हालांकि इतिहास में मौजूद नहीं है, लेकिन इतना तय है कि 1866 (विक्रमी सम्वत् 1923) में राजा फतेह प्रकाश के पुत्र कंवर सुरजन सिंह ने पक्का तालाब के किनारे एक शिवालय व धर्मशाला का निर्माण करवाया था। अगर इस बरस से माना जाए तो पक्का टैंक का इतिहास 155 साल पुराना है।
तारीख-ए-सिरमौर पुस्तक के मुताबिक पक्का तालाब का निर्माण शुरूआती दौर में कुमाऊं वाली रानी साहिबा ने करवाया था। तालाब से ही शहर को पानी भी मिलता था। तालाब के एक तट पर मिनार है, इसे गोरखा युद्ध में मारे गए अंग्रेज फौजी अधिकारियों की स्मृति में बनवाया गया था। वो 1814 में नाहन आए थे। युद्ध में जैतक में मारे गए थे। वहीं एक तरफ लखदाता पीर की दरगाह है।