कुल्लू, 21 नवम्बर : बाह्य सिराज दलाश से दक्षिण मार्ग पर स्थित गांव रिवाड़ी ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से एक धरोहर गांव है। जहां लगभग एक सौ परिवारों की ब्राह्मण जन बस्ती है। इस गांव की प्राचीन संस्कृति जहां अपने आप में एक पहचान है, वहीं शिवरात्रि जैसे तीज त्यौहारों में श्री वृंदावन संस्कृति की झलक भी मिलती है। यह गांव बहुत समय से अपनी अनूठी परंपरा, शिक्षा व अध्यात्म विद्या में समृद्ध रहा है। गांववासी सनातनी, सात्विक व सीधा-साधा जीवन व्यतीत करते हैं। लोग मां कुसुम्भा भवानी को अपनी इष्ट देवी तथा जोगेश्वर महादेव को इष्टदेवता के रूप में मानते आए हैं। गांव का नाम रिवाड़ी कैसे पड़ा, इस संदर्भ में गांव के इतिहास की एक पृष्ठभूमि है, जिसका उल्लेख गांव के बुजुर्ग स्व. पं. मोरध्वज शर्मा से प्राप्त हुआ है।
किसी समय इस गांव में कोई भी बस्ती नहीं थी, यहां से कुछ दूर वाग्घवी नामक स्थान से छिच्चू नाम का एक ब्राह्मण आया। उसकी पत्नी तो थी परंतु औलाद कोई नहीं थी। वह दलाश के जोगेश्वर महादेव का परम भक्त था। दलाश में प्राचीन समय से भादो मास में मेले की परंपरा निभाई जाती है। इस मेले में लोग पहले दिन यानि बनाली जात्रा के दिन लोग मृत प्राणी की याद में शाला वस्त्र अर्पित करते हैं। जब इसे दिवंगत आत्मा की स्मृति में शिव अर्पण करते हैं तो यह शाला वस्त्र बनाला वस्त्र के नाम से जानते हैं। तभी इस दिन को बनाली जात्रा का नाम देते हैं। छिच्चू को निरूसंतान होने का दुख सता रहा था। उसने सोचा कि मेरे मरने के बाद शिव को बनाला वस्त्र चढ़ाने वाला कोई नहीं होगा।
तब ब्राह्मण पुत्र शोक में रोने लगा, इस स्थिति में वह इष्ट देवता के पास गया और शिवालय में लोट पोट हो कर रोने लगा। जोगेश्वर महादेव की ऐसी विडंबना हुई कि देवता का गूर खेल में आकर कहने लगा कि तू अपने निवास स्थान से 20 गज दूर चला जा और वहां अपना बसेरा कर ले। वे दोनों अपने निवास स्थान से पीछे हट गए। देव आज्ञा से दोनों पति-पत्नी रिवाड़ी गांव में रहने लगे। वे पुत्र शोक में रोते रहे और अढाई दिन तक दोनों भूखे प्यासे रहे। ब्राह्मण जिस स्थान पर रोया वह स्थान रिवाड़ी नाम पड़ा। रोया को आम भाषा में रोआ कहते हैं, रोआ से रोआड़ी बना। आज भी लोग रिवाड़ी को रोआड़ी कहते हैं। रिवाड़ी इसी शब्द का अपभ्रंश रूप है।
इष्ट देवता की असीम कृपा हुई कि छिच्चू ब्राह्मण के 3 पुत्र पैदा हुए। वे यहां तीनों अलग अलग खानदान में बस गए। आज भी दलाश देवता का गूर गणाई देता है कि वाग्घयो बघाड़ मेरो हीको शराड़ उस ब्राह्मण के इतिहास की सार्थकता इस बात से सिद्ध होती है, कि ब्राह्मण के तीनों पुत्रों में पहला पुत्र नाग की पूजा करने लूहरी से पीछे पांजवी गांव में रहने लगा। बाद में वह अपने गांव वापस लौटा और उसके द्वारा नगैक वंश चला। दूसरा पुत्र गांव के बीच या मांझ में बस कर मझोलड़ कहलाया। मझोलड़ का विस्तार गांव की आगे वाली जगह में हुआ। जो आगशु खानदान कहलाई। तीसरा पुत्र अकेला महसूस करके अकेला से कलारू खानदान को बढ़ाया। इसके पीछे एक कहावत भी प्रचलित है, नगैके मंजन पथेके थाल, गोरखू भेड़े शुकी शाल।
कहने का तात्पर्य यह है कि गोरखू नामक व्यक्ति की भेड़े भी नष्ट हो गई, सोने की थाली भी खत्म हो गई परंतु मांजन अथवा पत्थर से चिनवाई गई घर की नींव व खलयान आज भी गांव की प्राचीर है। धीरे-धीरे गांव आबाद होता गया। कुछ वंशज यहां अन्य स्थलों से संयोगवश स्थायीत्व को प्राप्त हुए है।
गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि पुरातन समय में इस क्षेत्र में किसी समय भगवान परशुराम ने भी दर्शन दिए थे क्योंकि खेगसू में मां कुसुम्भा की स्थापना भगवान परशुराम ने की थी। छौयाबीह ब्राह्मणों का तो खेगसू से आत्मिक सरोकार रहा है। लोगों को परशुराम ने परशरामी तथा जागीरे दी है। तभी यहां के सभी देवी देवताओं की अपनी जागीरें है। यहां के लोग सनातनी, देवपरंपरा को निभाते आए हैं। श्रद्धावश गांव के लोगों ने आज से 41 वर्ष पहले एक गांव की संगोष्ठी बुलाकर राम मंदिर निर्माण का निर्णय लिया। संवत 2036 में मंदिर भवन बनाकर इस की विधिवत प्रतिष्ठा भी की गई और आनी के राजा श्रीरघुवीर सिंह की धर्मपत्नी स्वर्गीय श्रद्धा के कर कमलों द्वारा मंदिर का उद्घाटन किया गया।
वर्तमान समय में तो मंदिर का कायाकल्प हो चुका है। लोग मंदिर के लिए खुलकर अनुदान दे रहे हैं। अब यह स्थानीय लोगों के लिए विशेष रूप से सतसंग एंव आस्था का केंद्र बन चुका है। यह मंदिर दिनोंदिन प्रगति के शिखर पर अग्रसर है तथा गांव रिवाड़ी अब श्री राम की नगरी बनती जा रही है।