नाहन : क्या आप जानते हैं कि 80 के दशक तक शहर में सुबह 10 व शाम 5 बजे “घुघू” (सायरन) समय की पाबंदी का ऐलान करता था। मौजूदा में डाईट के सामने इसका प्लेटफार्म हुआ करता था। इसके बजते वक्त बच्चों में देखने की प्रबल इच्छा होती थी। शहर के बीचोंबीच इसे ऐसी जगह स्थापित किया गया था, जहां से इस सायरन की आवाज शहर के हरेक कोने तक पहुंचती थी। यह सायरन नाहन फाउंडरी के कर्मचारियों को डयूटी शुरू होने व खत्म होने की जानकारी देता था। अब आप सोच रहे होंगे कि कोरोना से इसका क्या लेना-देना है।
दरअसल, कर्फ्यू लागू है। इन दिनों भी एक हल्की सी आवाज उस समय सुनाई देती है, जब दोपहर में डेढ़ बजे के आसपास कर्फ्यू में ढील की मियाद खत्म होती है। अगर 80 के दशक का घुघू होता तो आज भी इसकी सार्थकता हो सकती थी। खैर, अब आपके जहन में यह भी सवाल उठ रहा होगा कि 80 के दशक के बचपन की याद कैसे ताजा हो गई। दरअसल, 90 के दशक के आखिर में शहर पर बोझ बढ़ने लगा। इससे पहले खुली व साफ सड़कों के साथ ताजा आबोहवा में जीवन यापन हुआ करता था। 2000 शुरू होने के बाद तो शहर पर वाहनों व आबादी का बोझ तेजी से बढ़ा। पिछले 10 साल में तो बेशक ही जनगणना में आबादी कुछ भी हो, लेकिन धरातल पर आंकड़ा 60 हजार से उपर ही है। इसकी वजह यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों से बड़े स्तर पर माइग्रेशन हो चुकी है।
जानकार बताते हैं कि जिस तरीके से माइग्रेशन हुई, उस अनुपात में मूलभूत ढांचा नहीं सुधरा, क्योंकि सरकारी योजनाएं केवल ओर केवल जनगणना के आधार पर ही चलती हैं। इसमें माइग्रेट आबादी को जोड़ने का कोई प्रावधान नहीं होता। बहरहाल, कोरोना संकट ने घुघू की याद तो दिलाई ही है, साथ ही उस जमाने को भी उन लोगों को याद दिला दिया है जो 80 के दशक में बाल्यकाल से गुजर रहे थे। कोरोना संकट में सड़कें उसी तरह से खाली है, हवा की गुणवत्ता भी 80 के दशक वाली ही महसूस हो रही है। सड़कों व गलियों की सफाई भी आज 30 साल पुरानी यादों को ताजा कर रही है। उल्लेखनीय है कि पिछले 15 साल में शहर ने बेतरतीब भवन निर्माण का दौर भी देखा है।
गौर हो कि सायरन का नाम घुघू इसलिए पड़ा था, क्योंकि इसकी आवाज बहुत ज्यादा तेज थी जो घू-घू कर दूर-दूर तक सुनाई देती थी।