नाहन : सराहां से 8 किलोमीटर की दूरी पर सराहां-शिमला नेशनल हाईवे के साथ क्वागधार की पहाड़ियों पर भूरीश्रृंग जिसे भूरेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है, मंदिर स्थित है। समुद्र तल से लगभग 6600 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर न केवल इलाके के 22 उपगोत्रों, जिन्हें स्थानीय भाषा मे खेल कहते है, लोगों के लिए न केवल श्रद्धा का केंद्र है। प्रदेश व साथ लगते राज्यों के लोग भी यहां काफी श्रद्धा के साथ आते हैं। मंदिर का शिवलिंग प्राचीन है। ऐसी मान्यता है कि सृष्टि के आदिकाल से प्राकट्य है।
ऐसा माना जाता है कि द्वादश ज्योतिर्लिंगों व भू-लिंगों के इतिहास में स्वयम्भू लिंग कालांतर में भूरीश्रृंग जो यहां दुग्धाहारी भुरेश्वर के नाम से विख्यात हुआ। यहां स्थित शिवलिंग 32 से 35 फुट पहाड़ पर मौजूद है। जहां गयास पर्व पर रात्रि को देवता छलांग लगाते हैं। यहां के बारे में किदवंती है कि शिव-पार्वती ने इस स्थान से ही कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध देखा था। यहां स्थित पानवां गांव जो पहले राजाओं के समय में भोज था, वहां की पनाल खेल, उपगोत्र व कथाड गांव की कथाडे खेल की भाई-बहन की कहानी, बरसयान और धरेट खेल की कहानी, संघोली तवाणुये खेल की कहानी, मधेना भेलण में कंडे ढलने की कहानी, धिनी सरजेट की कई कहानियों का इतिहास यहां से जुड़ा है।
देवता का मुख्य उत्सव देवगयास को होता है। मुख्य पुजारी डॉ. मनोज शर्मा के मुताबिक यहां के पुजारी शैव ब्राह्मण होते हैं। जो पुरोहित का कार्य करते हैं। 22 उपगोत्रों में कोई विवाह नहीं होता। मात्र भाई-बहन के रिश्ते होते हैं। अष्टमी की रात्रि ढाई बजे प्राचीन नियम व परंपराओं के साथ पुजारली गांव से पैदल 6 किलोमीटर दूर कवाल नदी से विशेष पूजा के बाद छु का कार्य करते हैं। फिर नवमी की रात को रात्रि जागरण करते हैं। चावथिया खेल जिसमें अपने देवता की शक्ति परीक्षण के लिए आग की लौ देकर देवता के आगमन के समय देवता का चंवर झुलाया जाता है। जिस कारण उपगोत्र का नाम चावरथीया पड़ा। वही पोलिया देवता के जयकारें लगाकर सभी कार्य करवाता हैं। वहीं अर्ध रात्रि को शिला विशेष के ऊपर की व्यवस्था देवा आदेश के मुताबिक करवाता है।
मेहंदो बाग गांव की मेहन्दू खेल जो मंदिर की तलहटी पर लगभग 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। देवता से अर्ध रात्रि में शिला पर छलांग का कार्य विशेष करवाते हैं। इस अवसर पर अपना इतिहास दोहराते हुए लगभग 10 वाणियों या आवाजों में अपना आशीर्वाद प्रदान करते है। संतान प्राप्ति की मनोकामना जरूर पूरा करते हैं। डॉ मनोज के मुताबिक सच्चे मन से जो भी यहां मनोकामना करता है वो जरूर पूरी होती है। ऐसा कहा जाता है कि 16वी सदी के आसपास महाराजा सिरमौर इस इलाके से गुजर रहे थे, तो उन्हें वनरधार, जिसे अब क्वागधार के नाम से जाना जाता है के पास कुछ लोग ऊपर पहाड़ी से आते दिखाई दिए। उन्हें लोगों से इस मंदिर के बारे में पता चला तो उन्होंने संतान प्राप्ति की कामना की जो कि जल्द ही पूरी हो गई।
उसके बाद महाराजा इस मंदिर में गए। वहां उन्होंने इस मंदिर की विकट परिस्थितियों को देखते हुए यहां के पुजारी के पूर्वजों को विशेष अधिकार देते हुए उन्हें मोहतमिम यानी प्रबंधक बनाया। फिर उन्हें रवि व खरीफ की फसल से जो स्थानीय मोजे का मामला इकट्ठा होता था। उसमे से 6-6 रुपये सालाना पुजारी को देना निश्चित किया। उन्हें पुश्तेनी माफ़िदार पुजारी के पट्टे से सन्मानित किया जाता रहा।
आज भी राजस्व विभाग द्वारा 12 रुपये की राशि मिलती है, जिसका बकायदा इंतकाल दर्ज होता है। पहले चाँदी के सिक्के मिलते थे। अधिकार एवम कर्तव्यों के पट्टे से पुश्तैनी मुआफिदार पुजारी को सन्मानित किया जाता रहा है। जो अब डीसी सिरमौर सरकार के आदेशानुसार प्रदान कर इस महान देव संस्कृति को शाश्वत बनाते है।
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