रेणु कश्यप/नाहन
प्रदेश की सबसे बड़ी प्राकृतिक झील श्री रेणुका जी का उड़ीसा के महेंद्र गिरि पर्वत से गहरा नाता है। यही भगवान परशुराम की वो तपोस्थली है, जहां से हर बरस कार्तिक मास की एकादशी पर अपनी मां से मिलने श्री रेणुका जी आते हैं। अपनी जन्मस्थली में पांच दिन बिताने के बाद पूर्णिमा को वापस अपनी तपोस्थली लौटते हैं। हालांकि भगवान परशुराम की देव पालकी श्री रेणुका जी के समीप जामूकोटी के प्राचीन मंदिर से लाई जाती है, जहां राज परिवार पालकी का इंतजार करता है। पहुंचने पर इसका स्वागत किया जाता है।
किवंदतियों के मुताबिक भगवान परशुराम को अजर रहने का वरदान भी प्राप्त है। ऐसा भी माना जाता है कि किसी भी रूप में भगवान परशुराम मेले के दौरान मिल सकते हैं। अक्सर ही महेंद्र गिरि पर्वत पर भगवान परशुराम को देखने के दावे किए जाते रहे हैं। उड़ीसा के गतपति जिला में महेंद्र गिरि पर्वत 4925 फीट की उंचाई पर है, जहां से समन्दर व हरे-भरे पेड़ नजर आते हैं।
ऐसी भी धारणा है कि महेंद्र पर्वत पर ही भगवान परशुराम की तपोस्थली है। पौराणिक कथाओं में हनुमान की तरह ही भगवान परशुराम को भी चिरंजीवी बताया गया है। भगवान परशुराम का जन्म बैसाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को माता रेणुका व पिता जमदग्नि के निवास में हुआ था, जिन्हें भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि सीता से स्वयंवर के पश्चात् भगवान राम से परशुराम की शिव का धनुष तोड़ने को लेकर तकरार हो गई थी।
इस दौरान भगवान राम तो सहज रहे लेकिन लक्ष्मण क्रोधित हो गए। इसी बीच जब परशुराम को इस बात का ज्ञान हुआ कि भगवान राम भी विष्णु के अवतार हैं तो उन्होंने स्वयं को बेहद असहज महसूस किया। इसके बाद ही महेंद्र पर्वत का रुख कर लिया।
मध्य हिमालय की पहाडिय़ों के आंचल में सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र का पहला पड़ाव है श्री रेणुका जी। यह स्थान नाहन से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर भारत का प्रसिद्ध धार्मिक एवं पर्यटन स्थल के रूप में जाना जाता है जहां नारी देह के आकार की प्राकृतिक झील है, जिसे मां रेणुका जी की प्रति छाया भी माना जाता है, स्थित है। इसी झील के किनारे मां श्री रेणुका जी व भगवान् परशुराम जी के भव्य मन्दिर स्थित हैं।
कथानक अनुसार प्राचीन काल में आर्यवर्त में है। हयवंशी क्षत्रिय राज करते थे तथा भृगुवंशी ब्राहमण उनके राज पुरोहित थे, इसी भृगुवंश के महर्षि ऋचिक के घर महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ। इनका विवाह इक्ष्वाकु कुल के ऋषि रेणु की कन्या रेणुका से हुआ। महर्षि जमदग्नि सपरिवार इसी क्षेत्र मे तपस्या मग्न रहने लगे। जिस स्थान पर उन्होंने तपस्या की वह ‘तपे का टीला’ कहलाता है। वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को मां रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम ने जन्म लिया। इन्हें भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है। अश्वत्थामा, ब्यास, बलि, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य व मारकण्डेय के साथ अष्ठ चिरंजीवियों के साथ भगवान परशुराम भी चिरंजीवी हैं।
महर्षि जमदग्नि के पास कामधेनु गाय थी, जिसे पाने के लिए सभी तत्कालीन राजा ऋषि लालायित थे। राजा अर्जुन ने वरदान में भगवान दतात्रेय से एक हजार भुजाएं पाई थी जिसके कारण वह सहस्त्रार्जुन कहलाए जाने लगे। एक दिन वह महर्षि जमदग्नि के पास कामधेनु मांगने पहुंच गए। महर्षि जमदग्नि ने सहस्त्रबाहु एवं उसके सैनिकों का खूब सत्कार किया तथा उसे समझाया कि कामधेनु गाय उसके पास कुबेर जी की अमानत थी, जिसे किसी को नहीं दिया जा सकता। यह सुनकर गुस्साए सहस्त्रबाहु ने महर्षि जमदग्नि की हत्या कर दी। यह सुनकर मां रेणुका शोकवश राम सरोवर मे कूद गई। राम सरोवर ने मां रेणुका की देह को ढक़ने का प्रयास किया जिससे इसका आकार स्त्री देह समान हो गया।
उधर भगवान परशुराम महेन्द्र पर्वत पर तपस्या मे लीन थे, लेकिन योगशक्ति से उन्हें अपनी जननी एवं जनक के साथ हुए घटनाक्रम का अहसास हुआ और उनकी तपस्या टूट गई। परशुराम अति क्रोधित होकर सहस्त्रबाहु को ढूंढने निकल पड़े तथा उसे आमने-सामने के युद्ध के लिए ललकारा। पर वीर भगवान परशुराम ने सेना सहित सहस्त्रबाहु का वध कर दिया। तत्पश्चात् भगवान परशुराम ने अपनी योगशक्ति से पिता जमदग्नि तथा मां रेणुका को जीवित कर दिया। माता रेणुका ने वचन दिया कि वह प्रति वर्ष इस दिन कार्तिक मास की देवोत्थान एकादशी को अपने पुत्र भगवान परशुराम को मिलने आया करेगी।
एक अन्य कथा के अनुसार, महर्षि जमदग्नि तपस्या मे लीन रहते थे। ऋषि पत्नी रेणुका पतिव्रता रहते हुए धर्म कर्म मे लीन रहती थी। वे प्रतिदिन गिरि गंगा का जल पीते थे तथा उससे ही स्नान करते थे। उनकी पतिव्रता पत्नी रेणुका कच्चे घड़े में नदी से पानी लाती थी। सतीत्व के कारण वह कच्चा घड़ा कभी नहीं गलता था। एक दिन जब वह पानी लेकर सरोवर से आ रही थी तो दूर एक गंर्धव जोड़े को कामक्रीड़ा में व्यस्त देखकर वह भी क्षण भर के लिए विचलित हो गई तथा आश्रम देरी से पहुंची। ऋषि जमदग्नि ने अन्तज्र्ञान से जब विलम्ब का कारण जाना तो वह रेणुका के सतीत्व के प्रति आशंकित हो गए और उन्होंने एक-एक करके अपने 100 पुत्रों को माता का वध करने का आदेश दिया, परंतु उनमें से केवल पुत्र परशुराम ने ही पिता की आज्ञा का पालन करते हुए माता का वध कर दिया।
इस कृत्य से प्रसन्न होकर ऋषि जमदग्नि ने पुत्र से वर मांगने को कहा तो भगवान परशुराम ने अपने पिता से माता को पुर्नजीवित करने का वरदान मांगा। माता रेणुका ने वचन दिया कि वह प्रति वर्ष इस दिन डेढ़ घड़ी के लिए अपने पुत्र भगवान् परशुराम से मिला करेंगी। तब से हर साल कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को भगवान परशुराम अपनी माता रेणुका से मिलने आते हैं मां-बेटे के इस पावन मिलन के अवसर से रेणुका मेला आरम्भ होता है। तब की डेढ़ घड़ी आज के डेढ़ दिन के बराबर है तथा पहले यह मेला डेढ़ दिन का हुआ करता था, जो वर्तमान में लोगों की श्रद्धा व जनसैलाब को देखते हुए यह कार्तिक शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक आयोजित किया जाता है।
मेला श्री रेणुका मां के वात्सल्य एवं पुत्र की श्रद्धा का एक अनूठा आयोजन है। पांच दिन तक चलने वाले इस मेले में आसपास के सभी ग्राम देवता अपनी-अपनी पालकी में सुसज्जित होकर मां-पुत्र के इस दिव्य मिलन में शामिल होते हैं। कई धार्मिक अनुष्ठान सांस्कृतिक कार्यक्रम, हवन यज्ञ, प्रवचन एवं हर्षोल्लास इस मेले का भाग है। हिमाचल प्रदेश, उतरांचल, पंजाब तथा हरियाणा के लोगों की इसमे अटूट श्रद्धा है।