मंडी (वी कुमार) : शहर की शान माना जाने वाला ऐतिहासिक घंटाघर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता हुआ नजर आ रहा है। बार-बार घ
डि़यों का खराब होना और घंटाघर को नयी तकनीक न मिलने के कारण आज इसके अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराते हुए नजर आ रहे हैं। इस वर्ष दो बार मुरम्मत करने के बाद घंटाघर फिर से खराब पड़ा हुआ है।

इसे छोटी काशी के नाम से विख्यात मंडी शहर का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां की ऐतिहासिक और प्राचीन धरोहरें उचित रखरखाव न होने के कारण अपनी बदहाली पर आंसू बहाने को मजबूर हैं। इन्हीं प्राचीन धरोहरों में से एक है मंडी शहर के बीचोंबीच बना घंटाघर। 1920 को मंडी शहर के तत्कालीन राजा ने अंग्रेजों की मदद से इस घंटाघर का निर्माण करवाया था। घंटाघर की बदहाली का अंदाजा आप इसी बात से लगा लिजिए कि इसकी घडि़यां अमूमन खराब ही रहती हैं।
इस वर्ष शिवरात्रि महोत्सव से पहले घडि़यों की मुरम्मत करवाई गई, लेकिन महोत्सव के दौरान जब घंटाघर को पेंट किया गया तो एक व्यक्ति ने सूईयों को ही पकड़ लिया, जिससे यह घडि़यां फिर से खराब हो गई। दोबारा से कलकता से कारीगर बुलाकर मुरम्मत करवाई गई, लेकिन अब फिर से घंटाघर की घडि़यां गलत समय बता रही हैं। नगर परिषद की कार्यकारी अधिकारी उर्वशी वालिया ने खराब घडि़यों को जल्द दरूस्त करवाने की बात कही है।
बता दें कि इस प्राचीन घंटाघर में जिस तकनीक को इस्तेमाल किया गया है उसकी मुरम्मत करने वाले कारीगर सिर्फ कोलकता में ही मिलते हैं। इन कारीगरों को पहले पैसे भेजने पड़ते हैं जिसके बाद ही यह घड़ी को चेक करने और फिर उसे ठीक करने के लिए यहां आते हैं। शहर के लोगों ने कई बार जिला प्रशासन और नगर परिषद को यह सुझाव दिया कि घंटाघर के बाहर के स्वरूप को वैसे ही रखा जाए, लेकिन अंदर की तकनीक को आधुनिक कर दिया जाए ताकि समय भी सही ढंग से देखने को मिले और हर एक घंटे के बाद आने वाली ‘टन’ की आवाज को सुनने का मौका भी मिल सके। लेकिन अभी तक इस पर कोई अमल नहीं हो सका है।
हालांकि आज हर व्यक्ति की जेब में समय देखने के लिए मोबाईल है, लेकिन घंटाघर की घडि़यों पर नजर डालकर समय देखने का शौक लोगों को आज भी है। यही कारण है कि इस घंटाघर का महत्व आज भी बरकरार है। वहीं घर घंटे इससे निकलने वाली ‘टन’ की आवाज भी लोगों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर देती है। लेकिन बीते कुछ महीनों से यह घंटाघर इन सबसे महरूम अपनी बदहाली पर आंसू बहाने को मजबूर है।