
नाहन (एमबीएम न्यूज़ ): दीपावली से ठीक एक महीने बाद गिरिपार क्षेत्र में मनाया जाने वाले बूढ़ी दीवाली का पर्व उत्साह के साथ शुरू हो गया है। शनिवार रात को पर्व का आगाज ह गया है। क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली मनाए जाने की एक अनूठी परंपरा है। तीन दिन तक चलने वाले इस त्यौहार को लेकर लोगों में खासा उत्साह देखा जा रहा है। दिवाली के एक महीने बाद अमावस्या की रात को गिरिपार क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली को हर्षोल्लास के साथ पारंपरिक तरीके के साथ मनाए जाने की परंपरा आज के दौर में भी खूब प्रचलित है। कुछ क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली को मशराली के नाम से भी मनाया जाता है।
पर्व को मनाने के लिए बाहरी राज्यों से भी लोग अपने घरों को पहुंच जाते है। धारणा है कि क्षेत्र में भगवान राम के अयोध्या पहुंचने की खबर एक महीना देरी से मिली थी। इसलिए यहां के लोग अन्य क्षेत्रों की बजाए एक महीने बाद दिवाली को धूमधाम से मनाते हैं। कुछ जगहों पर इस पर्व को बलिराज के दहन की प्रथा से भी जोडक़र मनाते हैं। बूढ़ी दिवाली को लेकर लोगों में अलग ही उत्साह और अंदाज देखने को मिलता है।
पर्व को मानने के दौरान विशेषकर कौरव वंशज के लोगों द्वारा अमावस्या की आधी रात में पूरे गांव की मशाल के साथ परिक्रमा करके एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। बाद में गांव के सामूहिक स्थल पर अग्नि देकर बलिराज दहन की परंपरा निभाई जाती है। वहीं पांडव वंशज के लोग सुबह ब्रह्महूर्त में बलिराज का दहन करते हैं। लोगों का विश्वास है कि अमावस्या की रात को मशाल जुलूस निकालने से क्षेत्र में नकारात्मक शक्तियों का प्रवेश नहीं होता और गांव में समृद्धि आती है।
बूढ़ी दीवाली के मौके पर लोगों द्वारा पारंपरिक व्यंजन बनाने के अलावा सूखे व्यंजन मूढ़ा, चिढ़वा, शाकुली, अखरोट एक दूसरे को देकर त्यौहार की शुभकामनाएं दी जाती है। इसके अतिरिक्त स्थानीय लोगों द्वारा हारूल गीतों की ताल पर किया गया लोक नृत्य सबसे आकर्षण का केंद्र होता है। इस त्यौहार पर बेटियों व बहनों को विशेष रूप से आमंत्रित करने की रिवायत है। ग्रामीणों द्वारा परोकडिय़ा गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ-साथ हुडक़ नृत्य करके जश्न मनाया जाता है। कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है। जबकि कुछ गांव में आधी रात को समुदाय के लोगों द्वारा बुडिय़ात नृत्य करके देव परंपरा को निभाया जाता है।