शिमला, 3 नवंबर : हिमाचल में अब तक के राजनीतिक इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो प्रदेश के कुल 6 मुख्यमंत्रियों में से पांच राजपूत बने। एकमात्र ब्राह्मण उम्मीदवार को भी दो बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। इसे भाग्य की विडंबना कहें या उनकी किस्मत, वो दोनों बार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके।
1952 में डाॅ. यशवंत सिंह परमार प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों की बात करें तो 22 साल तक डाॅ. परमार प्रदेश के मुखिया रहे। उनके बाद 6 बार वीरभद्र सिंह, दो बार ठाकुर रामलाल मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस के सभी मुख्यमंत्री राजपूत चेहरा रहे। वहीं, भाजपा में प्रेम कुमार धूमल दो बार और वर्तमान मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर एक बार मुख्यमंत्री बने।
अपवाद के रूप में ब्राह्मण जाति से प्रदेश के केवल शांता कुमार मुख्यमंत्री बन पाए। भाजपा से ताल्लुक रखने वाले शांता कुमार कभी अपने कार्यकाल को पूरा नहीं कर पाए। वह हिमाचल प्रदेश के पहले गैर कांग्रेसी व गैर राजपूत मुख्यमंत्री रहे। शांता 1977 से 1980 व 1990 से 1992 तक सीएम रहे। हालांकि, कांग्रेस सेे दिवंगत पंडित सुखराम व आनंद शर्मा हिमाचल के ब्राह्मण नेता रहे, जो सीएम की दौड़ में फ्रंट रनर रहे। मगर वीरभद्र सिंह के रहते दोनों हाशिए पर धकेल दिए गए।
हिमाचल क्षेत्रफल व आबादी दोनों के आधार पर छोटा राज्य है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी में हिमाचल का हिस्सा मात्र 0.57 फीसदी है। यहां साक्षरता दर 90 प्रतिशत से ज्यादा है। हिमाचल में 50.72 प्रतिशत आबादी सवर्णों की है, जिनमें सबसे अधिक 32.72 फीसदी राजपूत व 18 फीसदी ब्राह्मण हैं। 25.22 फीसदी एससी, 5.71 फीसदी एसटी, 13.52 फीसदी ओबीसी व 4.83 प्रतिशत अन्य समुदाय के लोग हैं। यहां मुस्लिम व सिख भी आबादी का हिस्सा हैं, मगर बेहद कम हैं।
गौरतलब है कि कुछ अपवादों को छोड़कर बीजेपी आम तौर पर बड़ी आबादी या प्रभावशाली जाति के व्यक्ति को सीएम नहीं बनाती। भाजपा ने नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद महाराष्ट्र व हरियाणा में मुख्यमंत्री के मामले में नया राजनीतिक प्रयोग किया। महाराष्ट्र में जहां हमेशा कांग्रेस व शिवसेना ज्यादातर मराठा को सीएम बनाते रहे, वहीं देवेंद्र फेडनविस के तौर पर ब्राह्मण को मुख्यमंत्री बनाया।
हरियाणा में भाजपा ने जाट समुदाय को दरकिनार कर पंजाबी चेहरे मनोहर लाल खट्टर को लगातार दूसरी बार सीएम बनाया। मगर हिमाचल में 2017 के चुनाव में भाजपा प्रदेश से राजपूत सीएम बनाने की परिपाटी को नहीं त्याग पाई। उसका शीर्ष नेतृत्व हिमाचल में गैर राजपूत को मुख्यमंत्री बनाने का साहस नहीं जुटा पाया।
हालांकि, जयराम का मुख्यमंत्री बनना एक अहम घटना थी, क्योंकि प्रदेश की राजनीति में पिछले तीन दशकों से कांग्रेस में वीरभद्र सिंह और भाजपा में प्रेम कुमार धूमल परिवार का दबदबा रहा। भाजपा ने धूमल के परिवार के दावे को नकारा, लेकिन राजपूत बिरादरी के दबदबे को कायम रखा।
इस दफा दोनों दलों में बदलेगी परिपाटी…
2022 के चुनाव में प्रदेश के दोनों प्रमुख दलों में सीएम पद के दावेदारों में राजपूतों व ब्राह्मणों की संख्या ज्यादा है। भाजपा पहले ही ऐलान कर चुकी है कि यदि वह प्रदेश की सत्ता में लौटी तो जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री होंगे। कोई विशेष परिस्थिति उत्पन्न नहीं हुई तो बात दीगर है।
राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ब्राह्मण जाति से ताल्लुक रखते हैं। वह केंद्र की राजनीति में जाने से पहले सीएम पद के दावेदार रहे हैं। मगर धूमल के सामने उनकी एक न चली। फिर वो केंद्र में चले गए। अब जनवरी 2023 में उनका राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यकाल समाप्त होने जा रहा है।
हो सकता है, कोई राजनीतिक दुर्घटना हो तो नड्डा इस परिपाटी को तोड़ पाएं। वहीं, कांग्रेस में ब्राह्मण नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री के अलावा आनंद शर्मा का नाम भी यदा-कदा सीएम के लिए लिया जाता है। मगर उनकी राह में राजपूत समुदाय की प्रतिभा सिंह, कौल सिंह ठाकुर, रामलाल ठाकुर, सुखविंद्र सिंह सुक्खू व हर्षवर्धन चैहान जैसे राजपूत चेहरों को नकारना शायद कांग्रेस के बस में नहीं है।
क्यों दोनों दल बनाते हैं राजपूत सीएम…
हिमाचल में अधिकतर विधानसभा कार्यकालों में मेजियोरिटी ऑफ़ द एमएलए राजपूत जीत कर आते हैं। प्रदेश में कुल 68 विधानसभा क्षेत्र हैं, जिनमें औसतन हर कार्यकाल में 30 से ज्यादा एमएलए राजपूत बिरादरी से चुने जाते हैं।
दोनों पार्टियों के हाईकमान चाहकर भी राजपूत बिरादरी को नकार नहीं सकते। जब भी दोनों प्रमुख दलों ने ऐसी कोशिश की तो राजपूत बिरादरी के विधायक एकजुट हो जाते हैं। आलाकमान को हमेशा उनकी एकता के आगे झुकने को मजबूर होना पड़ता है। भाजपा जैसे दल चाहकर भी हिमाचल में इस परिपाटी को नहीं बदल पाए।